एक बार गुरु आत्मानंद ने अपने चार शिष्यों को एक पाठ पढ़ाया। पाठ पढ़ाने के बाद वह अपने शिष्यों से बोले, 'अब तुम चारों इस पाठ का स्वाध्ययन कर इसे याद करो। इस बीच यह ध्यान रखना कि तुममें से कोई बोले नहीं। एक घंटे बाद मैं तुमसे इस पाठ के बारे में बात करूंगा।' यह कह कर गुरु आत्मानंद वहां से चले गए। उनके जाने के बाद चारों शिष्य अलग-अलग बैठ कर पाठ का अध्ययन करने लगे।
अचानक बादल घिर आए और वर्षा की संभावना बन गई। यह देख कर एक शिष्य बोला, 'लगता है, तेज बारिश होगी।' यह सुन कर दूसरा शिष्य बोला, 'तुम्हें बोलना नहीं चाहिए था।' तीसरा शिष्य बोला, 'तुमने बोल कर गुरुजी की आज्ञा भंग कर दी।' चौथा शिष्य चुपचाप पाठ पढ़ता रहा।
इसी बीच एक घंटा बीत गया और गुरु आत्मानंद वहां आए। उन्हें देख कर पहला शिष्य बोला, 'गुरुजी, यह मौन नहीं रहा और बोल पड़ा।' दूसरा शिष्य बोल पड़ा, 'तो तुम कौन-सा मौन थे। तुम भी तो बोल पड़े थे।' तीसरा शिष्य बोला, 'इन दोनों ने बोल कर आपकी आज्ञा भंग कर दी थी।' यह सुन कर दोनों तपाक से बोले, 'तो तुम भी तो बोल ही पड़े थे।' चौथा शिष्य अभी भी चुप था। यह देख कर गुरुजी बोले, 'तुममें से सिर्फ चौथे शिष्य ने ही मेरी शिक्षा का अनुकरण किया है। तुम तीनों एक-दूसरे की गलती का एहसास कराने के लिए स्वयं भी गलती कर बैठे। वस्तुत: अधिकतर लोग ऐसा ही करते हैं। वह दूसरे को उसकी गलती बताने के चक्कर में स्वयं भी गलती कर बैठते हैं और फिर खुद गलत मार्ग पर चलने लगते हैं।