उत्तराखंड में गढ़वाल के जौनसार बावर क्षेत्र में मशहूर परशुराम मंदिर है। चार सौ साल से इस मंदिर में परंपरा के नाम पर महिलाओं और दलितों के प्रवेश पर पाबंदी लगी हुई थी। अब प्रबंधन ने घोषणा की है कि चूंकि हमारे यहां तरक्की हो रही है, शिक्षा का स्तर बढ़ा है, ऐसे में बदले हुए सयम के साथ सभी को बदलना चाहिए। इसलिए मंदिर में अब किसी के भी प्रवेश पर पाबंदी नहीं रहेगी। यहां सभी का स्वागत है। यह घोषणा ऐसे समय में की गई है, जब महाराष्ट्र के सिंगणापुर के शनि मंदिर में महिला के मूर्ति छूने पर विवाद हो चुका है। हालांकि बाद में वहां के मंदिर ने एक महिला को अपनी समिति में भी रखा, मगर महिलाओं पर पाबंदी जस की तस रही। इसी तरह सबरीमाला मंदिर में कहीं महिलाएं मासिक धर्म के दौरान मंदिर में न आ जाएं, इसके लिए वहां स्कैनर लगाने की बात कही गई थी। इस पर काफी विवाद हुआ और महिलाओं ने एक आंदोलन भी चलाया था-हैप्पी टू ब्लीड।
इन महिलाओं का कहना था कि मासिक धर्म एक शारीरिक प्रक्रिया है, जिसे किसी की पवित्रता-अपवित्रता से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। इन विवादों को देखते हुए परशुराम मंदिर की घोषणा को प्रगतिशील माना जाना चाहिए। एक समय में माकपा ने केरल में दलितों के मंदिर में प्रवेश को लेकर आंदोलन चलाया था। माकपा किसी धर्म में विश्वास नहीं रखती, पर सिर्फ जाति के आधार पर किसी को मंदिर में न घुसने दिया जाए, इसका विरोध करने और दलितों को उनके अधिकार दिलाने के लिए केरल में पार्टी आगे आई थी। हिंदी क्षेत्र में भी प्रगतिशील लोगों को ऐसे भेदभाव दूर कराने के लिए आगे आना चाहिए। जौनसार बावर क्षेत्र के दलित कार्यकर्ताओं का कहना है कि वे इसके लिए पिछले तेरह वर्षों से संघर्ष कर रहे थे। अभी तो सिर्फ परशुराम मंदिर में प्रवेश की अनुमति दी गई है, बाकी 339 मंदिरों में ऐसी पाबंदियां अभी जारी हैं। एक तरफ हिंदू संगठन इस बात को लेकर गर्व करते हैं कि भारत में उनकी आबादी अस्सी प्रतिशत है, दूसरी तरफ अपनी ही बड़ी आबादी को, जिसमें दलित और महिलाएं शामिल हैं, अपने धार्मिक स्थलों में जाने से रोकते हैं। ऐसा क्यों?
क्या किसी अन्य धर्म में ऐसा सुना है कि अनुयायी तो आपके धर्म का हो, मगर वह धार्मिक स्थल में न जा सके। अतीत में अगर गलतियां हुई हैं, इंसानों में भेदभाव हुआ है, तो उसका समर्थन करने के बजाय उन्हें फौरन बंद करना चाहिए। महिलाएं और दलित अब किसी के कृपाकांक्षी नहीं हैं। यह उनके सशक्तिकरण का जमाना है। उनके सशक्त हुए बिना समाज ताकतवर नहीं हो सकता। गांधी और विवेकानंद ने जिन बातों को इतने पहले समझ लिया था, उसे हम आज तक क्यों नहीं समझ पाए? दलित लेखकों की रचनाएं पढ़ने पर अपने आप पर शर्म आती है। जो समाज खुद के अहिंसक होने का दावा करता है, वह किसी इनसान के प्रति इतना निर्मम कैसे हो सकता है? गढ़वाल में जिस स्वस्थ परंपरा की बुनियाद रखी गई है, उम्मीद है कि देश भर के लोग उससे सबक लेंगे। जाति, धर्म, लिंग और ऊंच-नीच के नाम पर बोए गए विषवृक्षों की बहुत फसल काटी जा चुकी, अब इसे खत्म हो जाना चाहिए। इसके खिलाफ देश भर के युवाओं को संगठित होना चाहिए।