एक जेन बोध कथा है। जापान में अक्सर भूकंप आते रहते हैं। यह वहां आए एक ऐसे ही भूकंप के समय की घटना है। एक सद्गुरु को उनके एक शिष्य ने अपने घर में निमंत्रण दिया कि वे आएं और उसके घर को अपनी उपस्थिति से दिव्यता प्रदान करें। शिष्य का घर सातवीं मंजिल पर था। सद्गुरु का वहां आना हुआ। उनके शिष्य ने अपने मित्रों व संबंधियों को भी अपने सद्गुरु के सत्संग में उपस्थित होने का निमंत्रण दिया था, इसलिए बीस-पच्चीस लोग सद्गुरु के सान्निध्य में आकर बैठ गए।
सत्संग प्रारंभ हुआ था कि कुछ ही क्षणों में एक भूकंप आया और आए हुए सभी सत्संगी सात मंजिला इमारत से नीचे की ओर दौड़ पड़े। एकाध मिनट में भूकंप रुक गया और धीरे-धीरे सभी सत्संगी सद्गुरु की उपस्थिति में लौट आए। इस दौरान सद्गुरु आंख बंद करके अपने ध्यान में अविचल बैठे रहे थे। एक शिष्य ने उनसे पूछा- गुरुदेव, कृपया बताएं कि भूकंप के समय आप अपनी रक्षा के लिए क्यों नहीं भागे? क्या आप अपनी रक्षा करने के लिए दौड़ना जरूरी नहीं समझते थे अथवा जानते थे कि आप बच जाएंगे? हमें ज्ञान दें। सद्गुरु ने कहा- जैसे आप भागे थे, मैं भी भागा था, लेकिन हमारी दिशाएं अलग- अलग थीं। आप बाहर की ओर भागे थे, मैं अपने भीतर भागा था। मैं अपनी शारीरिक परिधि से अपनी आत्मा के केंद्र की ओर भागा था। मैं भी बहुत जल्दी में था। जल्दी यह थी कि मैं अपनी मृत्यु से पहले अपने भीतर अमृत-केंद्र पर पहुंच जाना चाहता था, उस केंद्र-बिंदु पर, जहां मृत्यु नहीं पहुंच पाती। मृत्यु तो एक दिन आनी ही है, यह सुनिश्चित है। हम एक न एक दिन मरेंगे। हमें उससे पहले अपने भीतर वह केंद्र-बिंदु खोज लेना चाहिए, जहां कोई भय नहीं है।