-ललित उपमन्यु
समूह संपादक, दबंग दुनिया
राहुल गांधी की कुर्ता फाड़ राजनीति ने मुझे आकंठ विचलित कर दिया। वो जब आमसभा में अपने फटे कुर्ते और फटे जूतों का मुजाहिरा कर रहे थे तो मेरा तन-मन भीग रहा था। बचपन का किस्सा है। घर में जब कोई ‘फैमिली फाल्ट’ हो जाता था तो पूरा खानदान इस उपक्रम में लग जाता था कि घटना का पटाक्षेप घर में ही हो जाए। दादी-नानी अकाट्य तर्क देती थीं-अपना पेट किसके सामने उघाड़ें। नन्हत्व में मैंने इस मुहावरे के यही मायने निकाले थे कि अपनी पोल किसे बताएं। दादी-नानी तो जाती रहीं पर मेरी सूक्ष्म बुद्धि पर यह जुमला चस्पा कर गईं कि अपना पेट नहीं उघाड़ना है। राहुल साहसी हैं। दादी-नानी के तमाम तर्कों को विसर्जित कर खुले आम पेट और तलवे उघाड़ दिए।
बड़ा दिल है। मुझे भी संशय में डाल दिया है। दादी-नानी की नसीहतों को जबरन पेतृक संपत्ति समझ सहेजे हुए था। निरा मूर्ख। बदले संदर्भों और बदली राजनीति से सर्वथा अनभिज्ञ। अब बुद्धि लगा रहा हूं, इस कुर्ता फाड़ आयोजन के मायने क्या हैं? क्या समझूं? क्या यह कि मोदी की नोटबंदी के बाद गांधी परिवार में भीषण आर्थिक तंगी का दौर है। उनकी क्रय शक्ति बुरी तरह प्रभावित हो गई है। वो कपड़े-कपड़े, जूते-जूते को मोहताज हो गए हैं।
जहां तक मुझे याद है नोटबंदी के बाद वो एक बार एटीएम गए थे। ढाई हजार निकाले थे। सद्भावना थी मन में। ढाई हजार से मोदी के मांगे 50 दिन गुजारने का पवित्र प्रयास। ‘मैनेज’ हो नहीं पाया शायद। परदेस भी जाना पड़ा। नाते निभाना थे, घूम आए। नेतागिरी की भागदौड़ भी खूब हुई। खत्म हो गए ढाई हजार। तंगी आ गई। एटीएम से निकासी 4500 से होते हुए 10 हजार हो गई। कतारें भी नहीं हैं। इस बार राहुल एटीएम नहीं पहुंचे। क्या समझूं? खाता खाली है? गांधी परिवार की माली हालत इतनी खराब है। इकलौते चिराग का तन तक नहीं ढंक पा रहा है?
मोदी भी शक के घेरे में हैं। कहते हैं गरीबों के लिए लड़ रहा हूं। फटे कुर्ते वाले गरीब नहीं दिख रहे। निर्मम राजनीति। विरोधियों के दमन का वित्तीय षड़यंत्र। भक्तों की बात छोड़ो। वो सत्ता के साथी हैं और राहुल अभी सत्तामुक्त हैं। हम तो निर्दलीय हैं। हम पर भी लानत है। देश के संभावनाशील नेता को हमने खुले मंच पर खुद ‘अनावृत’ होने पर मजबूर कर दिया। अपनी पीड़ा बताने के लिए उन्हें मंच से ‘आंशिक अंग प्रदर्शन’ करना पड़ रहा है। तीन सौ रुपए का कुर्ता तक नहीं दे सकते। इतना तो कोई मनरेगा वाला ही कर देता। कम से कम ये तन- रे- गा की नौबत तो नहीं आती। विडंबना है। उनके कुर्ते से तन झांक रहा है। वो तन जिसे छूने भर से (यहां मेरा संदर्भ हाथ मिलाने से है) भक्त सोना हो जाते हैं। वो तन इतना निरीह। ‘वस्त्राभाव’ में खुद बिफरकर बाहर आ रहा है। आमसभा में। कुर्ते को तड़पता ये तन मामूली नहीं है। ये राष्ट्रीय संभावना है। हम ही निर्दयी हैं। ‘राष्ट्र स्तरीय लानत’ तो बनती है हम पर।
जूते भी फट गए हैं। मुलायम तलवे खुले में आ गए। मैं भौंचक हूं। दिन भर सैकड़ों अनुयायी चरण स्पर्श करते हैं। किसी की नजर नहीं पड़ी। नेत्र दोष? या नेताई संदर्भों की समझ? राजनीति में तो जूतों को ‘हाथों-हाथ’ लेने की परंपरा भी है। अक्सर होता है यह उपक्रम। जूतों के परिवहन के दौरान भी किसी ने जर्जर जूतों को लेकर आगाह नहीं किया। सवाल मत उठाइए। नमक मत छिड़किए जूतों के जख्मों पर। कोई तफरी के लिए बाहर नहीं निकले तलवे। जूते सचमुच फट गए हैं। उन्होंने आम सभा में बताया है। आपको मानना पड़ेगा। मैंने भी माना। तलवों में ताक-झांक भी की। कई निशान दिखे। अनुमान है किसी ने जुबान से स्पर्श किया हो। अनुमान अपुष्ट है। कन्फर्म नहीं है। मेरा मतिभ्रम भी हो सकता है। वो निशान राजनीतिक भागदौड़ से उपजे छाले भी हो सकते हैं।
जूता-कुर्ता दोनों फट गए। क्या समझूं? राजनीति? राजनीति में तो दूसरों के चीरहरण की कूट रचनाएं होती हैं। बगैर दुर्योधन। सनातन काल से। अब तो अपना जूता दूसरे के सिर मारने की स्टार्टअप योजना भी शुरू हो गई है। कुछ निशाने लग रहे हैं कुछ चूक रहे हैं। राहुल साहसी हैं। ऐसा तो नहीं उन्होंने खुले मंच पर स्व-चीरहरण की नई राजनीतिक परंपरा उद्घाटित की हो। राजनीति फटे कुर्ते से भी काफी कुछ निकाल सकती है। अगर ऐसा है तो भविष्य में स्व-चीरहरण के दृश्य इफरात में दिखेंगे, मानकर चलिए। मैं तो ‘उम्मीद से’ हूं। आप?
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