19 Mar 2024, 10:50:05 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-सुशील कुमार सिंह
निदेशक, वाईएस रिसर्च फाउंडेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन, देहरादून


यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि सत्ता की चाहत में दशकों से सियासत में वह सब कुछ भी हुआ है जो शायद परिकल्पनाओं में निहित न था। साथ ही इससे भी कोई अनभिज्ञ नहीं होगा कि सत्ता की चाशनी भी इस बीच कई मौकों पर कसैले स्वाद से भरी रही। पड़ताल करें तो इसकी बड़ी वजह सियासत का उतार-चढ़ाव ही रहा है। फिलहाल इन दिनों उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड तथा पंजाब समेत पांच राज्य चुनावी समर में देखे जा सकते हैं और ये सभी चुनावी प्रदेश आदर्श आचार संहिता के दौर से गुजर रहे हैं। इसके अलावा मेल-जोल और तोड़-फोड़ की राजनीति से भी जूझ रहे हैं। ऐसे मौके पर यह चर्चा भी उचित रहेगी कि छोटे दलों का ऐसे दिनों में क्या हाल रहता है और ये कब किसकी मुसीबत बन जाते हैं।

उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड की तस्वीर यह बताती है कि यूपी में छोटे दल बढ़ रहे हैं और उत्तराखंड में ये सिमट रहे हैं। बीते तीन दशकों के इतिहास को देखें तो उत्तरप्रदेश में छोटे दलों की उपज के पीछे जातीय समीकरण ही रहा है। यही कारण है कि दौर के अनुपात में जातीय विन्यास के चलते इन्होंने सत्ताओं में हस्तक्षेप भी खूब किया और बड़े-से-बड़े दल को सौदेबाजी के चलते झुकने के लिए मजबूर भी किया है। गठबंधन की सरकारें इसका मजबूत सबूत हैं। उत्तराखंड का सियासी चित्र उत्तरप्रदेश से काफी भिन्न है। अब तक हुए तीन चुनाव के चित्र देखें तो यहां के छोटे दल अपनी जमानत भी बचा पाने में सफल नहीं हो पाए हैं। यहां चर्चे में रहने वाली उत्तराखंड क्रांति दल सिलसिलेवार तरीके से सिमटती चली गई। इसके पीछे सत्ता की लोलुपता और अंदर का बगावती स्वरूप भी जिम्मेदार है, हालांकि अब यही बगावत इन दिनों यहां के राष्ट्रीय दल भाजपा और कांग्रेस में भी खूब देखा जा सकता है। गौरतलब है कि उत्तरप्रदेश में भी अखिलेश का नया अवतार बगावत का ही परिणाम है।
उत्तरप्रदेश में जो समाजवादी पार्टी प्रचंड बहुमत का रुख अख्तियार करती है वही उत्तराखंड में जमानत भी नहीं बचा पाती है। उत्तराखंड के तीनों विधानसभा चुनाव में सपा अभी तक खाता नहीं खोल पाई है। साथ ही वोट प्रतिशत में भी लगातार गिरावट बना हुआ है। साफ है कि उत्तरप्रदेश की वर्चस्व वाली समाजवादी पार्टी का उत्तराखंड में जनाधार न के बराबर है। गौरतलब है कि यूपी में समाजवादी और कांग्रेस पार्टी का महागठबंधन हुआ है जबकि उत्तराखंड में वे एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हैं। इस पहाड़ी प्रांत में भाजपा और कांग्रेस सीधे टक्कर में हैं, लेकिन यहां निर्दलीय तथा बिगड़ी राजनीति के चलते बगावती चेहरों को कमतर नहीं आंका जा सकता। दो टूक यह भी है कि बहुजन समाज पार्टी का सियासी खेल कुछ हद तक मैदानी और तराई इलाकों में देखा जा सकता है परंतु इस बार इसका भी जादू उतना प्रभावशाली नहीं दिखाई देता। उत्तरप्रदेश में भी बसपा अखिलेश की सपा के आगे फीकी प्रतीत हो रही है। ऐसे में मुकाबला सीधे तौर पर सपा और भाजपा के बीच ही दिखता है। इस संदेह में सभी हो सकते हैं कि आगामी विधानसभा चुनाव में समाजवादी या भाजपा में कौन बहुमत में आएगा। दो टूक यह भी है कि त्रिशंकु विधानसभा होने की शंका से भी उत्तरप्रदेश परे नहीं है। हालांकि दावे और इरादे इससे अलग हैं पर इस सच्चाई को दर किनार नहीं किया जा सकता कि समाजवादी पार्टी ने अखिलेश के नेतृत्व में जिस प्रकार जनता में बढ़त बनाई है और कांग्रेस से गठबंधन किया है उससे भाजपा के माथे पर बल आया होगा और मायावती की बसपा को भी बेचैनी हो रही होगी। सबके बावजूद यह भी देखने वाली बात होगी कि यूपी के वे छोटे दल जिन्होंने पिछले चुनाव में कई सीटों पर खेल बिगाड़ा था उनकी स्थिति इस बार क्या रहती है।

जातीय समीकरण के चलते उत्तरप्रदेश के कई सियासतदान अपनी सियासी रोटी सेकने और वजूद बनाए रखने में कुछ हद तक कामयाब भी रहे हैं। इसमें कौमी एकता दल समेत अपना दल और अन्य को शामिल देखा जा सकता है। सवाल यह भी है कि क्या निषाद पार्टी, पीस पार्टी, जनवादी पार्टी और महान दल जैसे कई जातीय बिसात पर बनी पार्टियां इस बार की चुनावी गणित को प्रभावित कर सकती हैं। विगत दो चुनावों से देखा जाए तो उत्तरप्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनती रही है। क्या इस बार भी ऐसा होगा यह तो जनता तय करेगी पर रही सियासत की बात तो दौर को देखते हुए राजनीतिक दल जोड़-तोड़ में लगे हुए हैं। हालांकि ऐसे छोटे दलों का बहुत असर नहीं होता है परंतु वोट काटने में इनका परिलक्षण कई के लिए नासूर बन जाता है। भाजपा, सपा तथा बसपा समेत सभी इनकी जद में आ सकते हैं। इससे अलग उत्तराखंड का परिदृश्य थोड़ा अलग है यहां बगावत सिर चढ़ कर बोल रहा है। इस पहाड़ी प्रदेश में कुल 76 लाख वोटर हैं और 70 सीटों पर 15 फरवरी को मतदान होना है। भाजपा ने जिस तर्ज पर बीते 18 मार्च की घटना से लेकर अब तक कांग्रेसी नेताओं, मंत्रियों और पूर्व मुख्यमंत्री को सीने से लगाया है और अपने ही दल के अंदर कांग्रेस का गठन किया है उससे यहां की सियासत काफी अस्थिर हुई है। रही सही कसर तब पूरी हो गई, जब बरसों से उम्मीद लगाए भाजपाई कार्यकर्ताओं और विधायकों का टिकट काटकर कांग्रेसी मेहमानों को चुनाव में उतार दिया गया। ताजा हालात यह है कि दो दर्जन से अधिक सीटों पर बगावती चेहरे भाजपा का गणित बिगाड़ने के लिए तैयार हैं। बीते 22 जनवरी को 63 सीटों पर कांग्रेस ने भी अपने उम्मीदवारों की सूची जारी की। यहां पर भी असंतोष की बाढ़ आई और राहुल गांधी समेत हरीश रावत और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के चित्र फाड़े और कुचले गए। गौरतलब है कि कई भाजपा के बागियों को कांग्रेस ने टिकट दिया है परंतु यहां कांग्रेस की एक अच्छी बात यह है कि उसने अपने सभी वर्तमान विधायकों को निराश नहीं किया है जबकि भाजपा में ऐसा नहीं हुआ है। एक वरिष्ठ कांग्रेसी विधायक को टिकट नहीं मिला, लेकिन ऐसा उनके चुनाव न लड़ने के इरादे के चलते किया गया है।

फिलहाल बिखरते और सिमटते सियासत के बीच सत्ता का ऊंट किस करवट बैठेगा इसका पूरा लेखा-जोखा आने वाले दिनों में हो जाएगा, पर लोकतंत्र में बढ़ी जन जागरूकता इस बात की ओर संकेत करती है कि मतदाता जातिगत राजनीति और सत्ता के लालच में तोड़-फोड़ को कम ही पसंद करते हैं। ऐसे में इस बार का चुनाव बगावत के बीच एक ऐसा बिगुल है जिससे नतीजे तक असमंजस तो रहेगा ही साथ ही उत्तराखंड में तो भाजपा और कांग्रेस को इससे कहीं अधिक सावधान रहने की भी जरूरत पड़ेगी।

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