-आर.के. सिन्हा
सांसद (राज्यसभा)
आपको याद होगा कि तीन-चार दशक पहले तक भारत से बाहर जाकर बसे भारतीयों को हेय भाव से देखता था हमारा समाज। कहा जाता था कि देश के संसाधनों का उपयोग करके देश को छोड़ना अनुचित ही नहीं मिट्टी के साथ विश्वासघात है, लेकिन अब वह मानसिकता नहीं रही। अब तो भारत से बाहर जाकर बसे भारतवंशियों और प्रवासी भारतीयों (एनआरआई) को देश के ब्रांड एंबेसेडर के रूप में देखा जाने लगा है। सरकार के स्तर पर भी सोच बदली है। इसी पृष्ठभूमि में आगामी 7 से 9 जनवरी के बीच बेंगलुरु में 14वां प्रवासी भारतीय दिवस (पीबीडी) का आयोजन हो रहा है। इसमें सारी दुनिया में लगभग 150 देशों में बसे हजारों सफल भारतवंशी भाग लेंगे।
दरअसल देश में नरेंद्र मोदी सरकार के सत्तासीन होने के बाद विदेश नीति के केंद्र में आ गए हैं विदेशों में बसे भारतीय। मोदी सिडनी से लेकर न्यूयार्क और नैरोबी से लेकर दुबई जिधर भी गए वे वहां पर रहने वाले भारतीय मूल के लोगों से गर्मजोशी से मिले। बड़ी-बड़ी सभाएं कर उन्हें संबोधित किया। उनके मसलों को उन देशों की सरकारों के सामने रखा-उठाया। अभी तक होता यही था जब भारत से राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री अपने विदेशी दौरों पर जाते थे तो उन देशों में स्थित भारतीय दूतावास कुछ खास भारतीयों को राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री से चाय पर मिलवा देते थे। कुल मिलाकर एक रस्मी आयोजना होता था। वह भी हर बार नहीं। समय मिलने पर। मोदी ने तो एक एसी परंपरा की नींव डाल दी है कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तो छोड़िए, लगभग हर केंद्रीय मंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्रियों तक के कार्यक्रम का एक बड़ा आयोजन होता है भारतवंशियों के बीच जाना।
वैसे भारतवंशियों से कोई रिश्ता न रखने की यह नीति पंडित जवाहरलाल नेहरू के दौर से ही चल रही थी। नेहरू ने संसद में 1957 में यहां तक कह दिया था कि देश से बाहर जाकर बसे भारतीयों का हमारे से कोई संबंध नहीं है। वे जिन देशों में जाकर बसे हैं, उनके प्रति ही अपनी निष्ठा दिखाएं। यानि कि उन्होंने विदेशों में उड़ते अपने पतंग की डोर ही काट दी थी। उनके इस बड़बोलेपन से विपक्ष ही नहीं तमाम राष्ट्रवादी कांग्रेसी भी आहत हुए थे। उन्हें ये सब कहने की आवश्यकता नहीं थी। जो भारतीय किसी अन्य देश में बस भी गया है, तब भी वह भावनात्मक स्तर पर तो भारतीय ही रहता है जिंदगीभर। भारत सरकार भी चाहती है कि भारत को लेकर निष्ठा बनी रहे। नेहरू के विपरीत मोदी मानते हैं कि भारत से बाहर बसे ढाई करोड़ से अधिक भारतीय भारत के ब्रांड एंबेसडर के रूप में काम करें। इनकी उपलब्धियों से भारत का नाम रोशन होता है।
अब मोदी सरकार प्रो-एक्टिव होने लगी है, जब किसी देश में भी भारतीय संकट में फंसे। यह मोदी सरकार के ढाई वर्षों में देखने को मिला। यह सब पहले नहीं होता था, हालांकि हम कथित तौर पर निर्गुट आंदोलन के मुखिया थे। महत्वपूर्ण है कि देश से बाहर गए और बसे भारतीयों में कोका कोला की सीईओ इंदिरा नूई, ब्रिटेन के लार्ड स्वराज पाल, लार्ड करन बिलमोरिया, मास्टर कार्ड के ग्लोबल हेड अजय बंगा जैसे खासमखास और प्रख्यात लोग कम हैं। देखा जाए तो 1970 के पूर्व बाहर गए अधिकतर तो मेहनतकश कुशल और अकुशल मजदूर ही हैं। खाड़ी के देशों में लाखों भारतीय मजदूर काम कर रहे हैं। इनके बहुत से प्रतिनिधि पीबीडी में मिलेंगे, लेकिन 1970 के बाद बड़ी भरी संख्या में भारतीय डॉक्टर और इंजिनियर, विशेषकर साफ्टवेयर एक्सपर्ट विदेश पहुंचे और उन्होंने विदेशों में भारत की छवि बदली। अच्छी बात ये है कि भारत सरकार अब इनके सुख-दुख का ख्याल रखने लगी है। मोदी सरकार के कठिन किंतु दृढ़ प्रयासों के चलते साल 2015 में यमन में फंसे हजारों भारतीय सुरक्षित स्वदेश लौटे पाए थे। भारतीयों के निकालने के लिए नेवी और एयरफोर्स ने आॅपरेशन राहत चलाया था। भारत के सफल राहत अभियान को देखते हुए अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी समेत 26 देशों ने अपने नागरिकों को यमन से निकालने के लिए भारत की मदद मांगी थी। तब विदेश राज्यमंत्री जनरल वीके सिंह आॅपरेशन राहत की शुरुआत से यमन में स्वयं मौजूद रहे और खुद राहत के काम की व्यक्तिगत रूप से देखरेख की। दरअसल, विदेशों में काम करने वाले भारतीय मजदूरों का मसला बड़ा गंभीर और जटिल है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यूएई और सऊदी अरब की बीते महीनों के दौरान यात्रा पर गए थे। उधर उन्होंने वहां के नेताओं से भारतीय श्रमिकों से जुड़े मसलों के संबंध में भी बात की। उसका तत्काल लाभ हुआ। इसी तरह से इस साल के गणतंत्र दिवस समारोह में अबूधाबी के शेख मोहम्मद बिन जायेद अल नाहयान मुख्य अतिथि होंगे। जाहिर है कि उनके भारत दौरे के समय दोनों देशों के आपसी संबंधों के अतिरिक्त यूएई में काम करने वाले भारतीय मजदूरों के हितों पर फिर से विस्तार से चर्चा होगी। यूएई और बाकी खाड़ी देशों में लाखों भारतीय कुशल-अकुशल श्रमिक काम कर रहे हैं विनिर्माण परियोजनाएं से लेकर दुकानों वगैरह में। निर्विवाद रूप से मोदी की यूएई यात्रा से भारतीय मजदूरों की खराब हालत में सुधार शुरू हुआ। ये किसी को बताने की जरूरत नहीं है कि खाड़ी देशों में बंधुआ मजदूरों की हालत में भारतीय श्रमिक काम करते रहे हैं। आप रियाद, दुबई या अबूधाबी एयरपोर्ट पर जैसे ही उतरते हैं तो आपको चारों तरफ भारतीय ही मिलते हैं। इन्हें अरब देशों में कामकाज करवाने के लिए लाया तो जाता है पर इन्हें वहां पर न्यूनतम वेतन, मेडिकल और इंश्योरेंस जैसी सुविधाएं नहीं मिल पाती।
यूपीए सरकार के दौर में विदेश राज्य मंत्री ई. अहमद से खाड़ी देशों में काम करने वाले भारतीय श्रमिकों के शोषण के संबंध में संसद में एक बार सवाल पूछा गया। केरल से मुस्लिम लीग की टिकट पर संसद पहुंचने वाले ई. अहमद ने बताया अनुमान है कि लगभग छह मिलियन भारतीय खाड़ी क्षेत्र में रहते हैं एवं वहां पर कार्य करते हैं। भारत सरकार को खाड़ी देशों में भारतीय कामगारों द्वारा सामना की जा रही समस्याओं से संबंधित शिकायतें नियमित रूप से प्राप्त होती हैं। भारत सरकार ने खाड़ी देशों में अपने मिशनों के माध्यम से भारतीय कामगारों के अधिकारों की रक्षा करने एवं कामगारों के शोषण संबंधी समस्याओं के निराकरण के कई उपाय किए हैं। ईस्ट अफ्रीकी देश युगांडा से हजारों भारतवंशियों को वहां के नरभक्षी राष्ट्रपति ईदी अमीन ने सारी संपत्ति हड़पकर खदेड़ दिया था। अनेक दशकों से युगांडा में बसे भारतीय मूल के लोग वहां की अर्थव्यवस्था की प्राण और आत्मा थे।
दरअसल बीते कुछेक सालों से राज्य सरकारें भी अपने प्रदेशों के प्रवासी सम्मेलन करवा रही हैं। ये भी अच्छी पहल है। हाल के सालों में आंध्र प्रदेश के हजारों पेशेवर अमेरिका में जाकर बस गए हैं। इनका सिलिकॉन वैली में दबदबा है। इसी तरह से गुजरात, पंजाब और बिहार सरकारें भी क्षेत्रिय प्रवासी सम्मेलन करवा रही हैं। केन्द्र सरकार भी पीबीडी को दिल्ली से बाहर ले गई है। पहले कई सालों तक पीबीडी दिल्ली में ही आयोजित होता था। अब ये चेन्नई, गांधीनगर और बेगलुरू में हो रहा है। यानी मोदी सरकार सरकार खासी सक्रिय है पीबीडी के परिणामों को लेकर। हमें किसी भी सूरत में भारत से बाहर बस गए अपने भाई-बंधुओं के हितों को देखते रहना होगा। भारत एक महाशक्ति बन चुका है। इसलिए भारत से बाहर जाकर बसे भारतीयों के हित सुरक्षित रहने चाहिए।