-ब्रजेश कुमार सिंह
वरिष्ठ पत्रकार
भारतीय थलसेना के नए प्रमुख होंगे लेफ्टिनेंट जनरल बिपिन रावत। जैसे ही मोदी सरकार ने अपने इस निर्णय को सार्वजनिक किया, कांग्रेस सहित कई विपक्षी पार्टियों ने इस फैसले की आलोचना की। किसी ने जनरल रावत की क्षमता पर सवाल नहीं उठाए, लेकिन मोदी सरकार की मंशा पर सवाल खड़ा किया गया। सवाल ये उठाया गया कि आखिर जनरल रावत से सीनियर दो सैन्य अधिकारी जब मौजूद थे, तो उनकी उपेक्षा कर जनरल रावत को भारतीय थल सेना की कमान सौंपने का फैसला क्यों किया गया। जनरल दलबीर सिंह सुहाग इसी 31 दिसंबर को रिटायर हो रहे हैं, ऐसे में दो हफ्ते के अंदर आर्मी की कमान जनरल रावत के हाथ में आ जाएगी। तब तक सरकार के फैसले की आलोचना का दौर जारी रहने वाला है।
सवाल उठता है कि क्या ऐसा पहली बार हुआ है, जब तत्कालीन सरकार पर सैन्य नियुक्ति में राजनीति करने का आरोप लगा है। ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है। पहले भी सबसे वरिष्ठ अधिकारी की उपेक्षा कर जूनियर को भारतीय थल सेना की कमान दी गई है। कांग्रेस के मनीष तिवारी मोदी सरकार पर सैन्य प्रमुख जैसे महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त के मामले में राजनीति का आरोप लगा रहे हैं, लेकिन मनीष तिवारी को भारतीय थल सेना का इतिहास शायद पूरी तरह याद नहीं होगा। जिस पंजाब से वो चुनाव लड़ते रहे हैं, उस पंजाब का इतिहास और भारतीय थल सेना के सर्वोच्च पद पर नियुक्ति में हुई राजनीति सर्वविदित है।
आज जब जनरल रावत के मामले को सामने रख ये सवाल उठाया जा रहा है कि आखिर कब वरिष्ठ की उपेक्षा कर जूनियर को आर्मी चीफ की कुर्सी दी गई थी, तो लोगों को जनरल एसके सिन्हा का केस याद आ रहा है, लेकिन इंदिरा गांधी की तत्कालीन सरकार ने जनरल सिन्हा को क्यों आर्मी चीफ नहीं बनाया, जबकि वो इसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त थे, ज्यादातर लोगों के ध्यान में नहीं आता। जब जनरल के वी. कृष्ण राव 1983 के जुलाई महीने में रिटायर होने जा रहे थे, उससे कुछ महीने पहले नए आर्मी चीफ की नियुक्ति का मामला सामने आया। इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। सबको ये लग रहा था कि वरिष्ठता के आधार पर जनरल एसके सिन्हा ही नए आर्मी चीफ बनाए जाएंगे, लेकिन जब फैसले का ऐलान हुआ, तो सबको झटका लगा। इंदिरा गांधी ने जनरल सिन्हा की जगह जनरल एएस वैद्य को आर्मी चीफ बनाने का ऐलान किया।
सवाल उठता है कि आखिर क्यों जनरल सिन्हा की उपेक्षा की गई, जिस फैसले में जनरल कृष्ण राव की राय भी शामिल थे। बताया जाता है कि जनरल सिन्हा ने उस समय सिख उग्रवाद से निबटने में सेना के इस्तेमाल की मनाही की थी। सिन्हा का मानना था कि अगर ऐसा हुआ, तो ये सेना के लिए अच्छा नहीं होगा। भारतीय सेना के अधिकारियों और जवानों का बड़ा हिस्सा पंजाब से आता है और ऐसे में एक ऐसा मामला, जो तत्कालीन कांग्रेस सरकार की नीतियों के कारण ही धार्मिक उग्रवाद में तब्दील हो चुका था, उसमें सेना को शामिल करना ठीक नहीं था। जाहिर है, इंदिरा गांधी सिन्हा की इस राय से इत्तफाक नहीं रखती थीं और इसलिए सिन्हा की जगह जनरल वैद्य को नया आर्मी चीफ बनाने का फैसला किया गया।
जनरल वैद्य ने इंदिरा गांधी की बात मानी और उन्हीं की अगुआई में जून 1984 के पहले हफ्ते में आॅपरेशन ब्लू स्टार हुआ। आॅपरेशन ब्लू स्टार के कारण भारतीय थल सेना के सिख अधिकारियों और जवानों में असंतोष भी हुआ, जिसकी एक झलक तब दिखी, जब झारखंड के रामगढ़ में सिख रेजिमेंटल सेंटर के सिख फौजियों ने विद्रोह कर दिया और अपने कमांडर ब्रिगेडियर आरएस पुरी को मार डाला और वहां से सिख सैनिकों की विद्रोही टुकड़ी दिल्ली की तरफ बढ़ी। इन विद्रोही सैनिकों पर वाराणसी के करीब काबू पाया जा सका, वो भी सेना की दूसरी टुकड़ी की मदद से। सिख सैनिकों के विद्रोह पर तो काबू पा लिया गया, लेकिन इससे सिख उग्रवाद और भड़का। हालात ये बने कि अक्टूबर 1984 में इंदिरा गांधी को आॅपरेशन ब्लू स्टार की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी, उनके ही दो सिख अंगरक्षकों ने प्रधानमंत्री आवास पर ही उन्हें गोलियों से भूनकर मार डाला। सिख उग्रवादियों का निशाना जनरल वैद्य भी बने। रिटायरमेंट के बाद पुणे की छावनी में रह रहे जनरल वैद्य को भी सिख उग्रवादियों ने गोलियों से भून डाला, जिसकी वजह से उनकी मौत हुई।
खैर, जनरल सिन्हा को जब सुपरसीड होने की खबर मिली तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया। जनरल सिन्हा बाद में नेपाल में भारत के राजदूत और असम और जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल भी बने और अपने उत्कृष्ट कार्य की वजह से लोगों की प्रशंसा पाई। बताया जाता है कि जनरल सिन्हा को सैन्य प्रमुख न बनाए जाने के और भी कुछ कारण थे। एक तो जनरल सिन्हा थिंकिंग जनरल थे, हर बड़े विषय पर उनके मौलिक विचार होते थे। वो जनरल सिन्हा ही थे, जो नौकरशाही के मुकाबले सैन्य अधिकारियों के कम वेतन, भत्ते और पेंशन को लेकर जमकर लड़े थे। ये बात नौकरशाही को कभी पसंद नहीं आई थी और उनके सैन्य प्रमुख के तौर पर प्रमोशन में वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों ने भी भांजी मारी थी। दूसरा कारण ये भी था कि जनरल सिन्हा जयप्रकाश नारायण के काफी करीब बताए जाते थे।
दोनों ही बिहार से थे और वो भी एक ही जाति से, आपस में रिश्तेदारी भी थी। ये बात भी जनरल सिन्हा के खिलाफ गई थी। जनरल सिन्हा के साथ भले ही इंदिरा गांधी ने अन्याय किया, लेकिन बाद की गैर-कांग्रेसी सरकारों ने उन्हें काफी इज्जत दी, राजदूत से लेकर राज्यपाल तक बनाया। फिलहाल सवाल इस बात का है कि क्या सेना प्रमुख की नियुक्ति महज वरिष्ठता के आधार पर होनी चाहिए या फिर प्रतिभा और जरूरी अनुभव के आधार पर। इस मामले में भी आजादी के बाद से ही विरोधाभास रहा है।
जाहिर है, सेना की परंपरा और सैन्य अधिकारियों का सम्मान भारत में क्षुद्र राजनीति से ऊपर नहीं उठ पाया है। इसका संकेत आजादी के समय ही मिल गया था। आजादी के तुरंत बाद, जनरल नत्थू सिंह जो प्रखर राष्ट्रवादी थे, उनके और पंडित नेहरू के बीच सेना को लेकर बातचीत हुई। नत्थू सिंह सेना को तुरंत पूर्ण भारतीय स्वरूप देना चाह रहे थे, यहां तक कि नेतृत्व के स्तर पर भी, उस वक्त नेहरू ने कहा कि भारतीय सेना की कमान संभालने के लिए भारतीय अधिकारियों के पास पर्याप्त अनुभव नहीं है। ये सुनते ही नत्थू सिंह ने तपाक से नेहरू से पूछा, आपके पास भी देश चलाने का पर्याप्त प्रशासनिक अनुभव नहीं रहा है, फिर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर आप कैसे। नेहरू के पास इसका कोई जवाब नहीं था। ये बात अलग कि नत्थू सिंह और भारतीय सेना के प्रति अपना हीन नजरिया कभी नेहरू ने नहीं बदला। इसका सबसे बड़ा संकेत ये रहा कि जिस बड़े अहाते वाले आलीशान मकान में ब्रिटिश काल में कमांडर इन चीफ रहा करते थे, उस मकान को आजादी के तुरंत बाद नेहरू ने बतौर प्रधानमंत्री अपने आवास के तौर पर हथिया लिया और उनकी मौत के बाद भी आज भी उनका स्मारक सह संग्रहालय वहां चल रहा है तीन मूर्ति भवन के नाम से।