27 Apr 2024, 01:37:56 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-आरके सिन्हा
सांसद, राज्यसभा


कानपुर रेल हादसे से सारा देश उदास है। मरने वालों की संख्या डेढ़ सौ को छू रही है। आज जबकि  समूचा देश मृतकों को अश्रुपूरित विदाई दे रहा है, तब मांग करने वाले यह मांग कर रहे हैं कि रेल मंत्री इस्तीफा दें। चूंकि, उन्हें रेलवे नेटवर्क के विभिन्न पक्षों के संबंध में या तो अधकचरी जानकारी और समझ है और फिर उन्हें अपनी राजनीति की रोटी सेंकनी है। अत: वे कुछ भी कह सकते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी जो मिली हुई है। उसका दुरुपयोग जरूरी तौर पर करेंगे लेकिन, याद रखें कि सभी रेल हादसों के मूल में कारण रेल ट्रैकों की भारी कमी और उन पर लगातार बढ़ता बोझ है। रेल ट्रैकों की संख्या में बड़े स्तर पर इजाफा किए बिना हम शायद कभी भी रेल हादसे रोक नहीं पाएंगे। अब आप पूछेंगे कि मौजूदा रेल ट्रैकों की संख्या को बढ़ाने में किस स्तर पर अवरोध हैं? उन्हें दूर क्यों नहीं किया जाता? आपके प्रश्न उचित हैं। कोई भी शख्स ये सवाल तो पूछेगा ही। लेकिन, जब तक भूमि  अधिग्रहण बिल को संसद से पारित नहीं हो जाता तब तक रेलवे के नए ट्रैक बनेंगे कहां से? जरा गौर कीजिए कि कानपुर हादसे के बाद रेल मंत्री से इस्तीफा मांगने वाले वे ही महानुभाव हैं जो भूमि अधिग्रहण बिल का संसद में तगड़ा विरोध कर रहे थे।

आजादी के वक्त देश की आबादी मात्र 33 करोड़ थी। आज सवा सौ करोड़ है। पहले लोग इक्का-दुक्का ही जरूरत पड़ने पर ही सफर किया करते थे। कोलकाता में काम करने वाले हमारे गांव के ज्यादातर नवयुवक या तो ईद पर गांव आते थे या फिर होली पर। अब तो हर महीने आते हैं, कभी-कभी दो बार। पहले छात्र राज्यों के बाहर कम ही पढ़ने के लिए जाते थे। अब तो छात्र-छात्राएं सभी धड़ल्ले से बाहर जाते हैं। बचपन में पटना से दिल्ली और कोलकाता के लिए एक-एक ट्रेनें ही जाती थी, अब दर्जनों में हैं।   

कायदे से देशभर में कम से कम छह या सात रेल ट्रैक हर जगह बनने चाहिए। दो यात्री गाड़ियों के लिए एक अप और एक डाउन ट्रैक। इसी प्रकार दो  मालगाड़ियों के वास्ते। पांचवां ंसेना, पुलिस बल, राहत कार्य ट्रैक निरीक्षण आदि के लिए इमरजेंसी ट्रैक। छठा, जिस पर बारी-बारी से निरंतर मेंटेनेंस कार्य जारी रहे। एक स्पेयर हो स्पेशल ट्रेन आदि के लिए तो बढ़िया। क्या ये सब हम करने की स्थिति में हैं? अगर नहीं हैं तो हमें ये सब करने के लिए संसाधन जुटाने ही होंगे।

अंग्रेजों ने भारत में रेल सेवा की शुरुआत 16 अप्रैल 1853 को अपने लाभ के लिए की थी न कि भारत की जनता के लिए। अंग्रेजों ने मुंबई, कोलकाता, चेन्नई को रेल नेटवर्क से जोड़ा, ताकि गोरे वहां के बंदरगाहों से कोयला, लौह अयस्क और अन्य खनिज, कपास कपड़े, सोना-चांदी आदि दूसरा सामान ब्रिटेन भेज सकें। गोरे तो यात्री रेल से ज्यादा माल गाड़ी के नेटवर्क को लेकर गंभीर थे। देश की आजादी से पहले आमतौर पर मालगाड़ी में ही कुछ डिब्बे जोड़ दिए जाते थे, जिसमें बड़े अंग्रेज अफसर या राजे-रजवाड़े सफर करते थे। ये सैलूननुमा होते थे। उन्होंने सामान्य आम हिंदुस्तानी के हित की तो कभी नहीं सोची। वे तो चाहते ही नहीं थे कि हिंदुस्तानी सफर करें। उन्हें डर लगता था कि सफर करने वाले उनके खिलाफ षड़यंत्र करेंगे। इसलिए जो कहते हैं कि भारत में रेलवे नेटवर्क गोरे लेकर आए उन्हें अपनी सोच में बदलाव कर लेना चाहिए। गोरों ने भारत छोड़ों आंदोलन के बाद रेल नेटवर्क का विकास और विस्तार बंद कर दिया था, क्योंकि उन्हें तब तक समझ आ गया था कि अब उन्हें भारत से जान ही होगा। यानी देश में आम इंसान के लिए रेलवे ने सोचना तो 15 अगस्त, 1947 के बाद ही चालू किया।

अब करीब 16 लाख कर्मचारियों, प्रतिदिन चलने वाली 11 हजार ट्रेनों,7 हजार से अधिक स्टेशनों एवं करीब 65 हजार किलोमीटर रेल मार्ग के साथ भारतीय रेल नेटवर्क पहली नजर में बहुत विशाल लगता है। इसमें कोई विवाद भी नहीं हो सकता, लेकिन, हमें अपनी रेल की रफ्तार की चीन से भी तुलना कर लेनी चाहिए। चीन का रेल नेटवर्क महज 27 हजार किमी लंबा था 1947 तक।

अब 78 हजार किलोमीटर हो गया यानि की 188 प्रतिशत की वृद्धि। भारत में   1947 में रेल लाइनें 55 हजार किलोमीटर थी। आज भारत में 64 हजार किलोमीटर रेल ट्रैक है, यानि मात्र 16 प्रतिशत की वृद्धि। चीन का फोकस रहता है, अपने ट्रैकों के विस्तार करने में। हमने 70 साल में क्या किया? कौन जवाब देगा इसका।

बेशक, भारत में  तकनीक का तो विकास हुआ,, यात्रियों की संख्या भी बढ़ी,, लेकिन ट्रैक निर्माण में वृद्धि नहीं हुई। ये गंभीर मसला है। आंकड़े बताते हैं कि 1980 में जहां 61,240  हजार किलोमीटर रेलवे का नेटवर्क था, वहीं 2012 में 64,600 हजार किलोमीटर। यानी 32 साल में महज 3,360 किलोमीटर ही रेल लाइन को बिछाने में कामयाबी मिली। इतना ही नहीं 20, 275 किमी पर ही इलेक्ट्रिक ट्रेन दौड़ती है, जो कुल नेटवर्क का महज 32 फीसदी ही है, जबकि, यात्रियों की संख्या में बेतहाशा बढ़ रही है ।

इस बीच, भूमि अधिग्रहण बिल को कानून का स्वरूप मिलने में मालूम नहीं कि कितना वक्त और लगेगा। ये भी कहा नहीं जा सकता कि हमारा विपक्ष इसे कानूनी जामा पहनाने में कितना सरकार का साथ देता है। पर रेल मंत्रालय अब ट्रैक बिछाने में भी तेजी ला रहा है। रेल विभाग हर दिन 19 किलोमीटर ट्रैक बिछाने लगा है। यानी सालाना 6965 किलोमीटर रेल ट्रैक की लंबाई बढ़ेगी। अगर इस लक्ष्य को हासिल कर लिया जाता है तो अगले चार वर्षों में भारत के अनेक प्रमुख इलाकों तक ट्रेन पहुंच जाएगी, पर इतना भी काफी नहीं है। देश का लक्ष्य तो ट्रैकों का विस्तार करना होना चाहिए। निरापदता के लिए एक ट्रैक का लगातार मेंटेनेंस में रहना जरूरी है। 

अफसोस होता कि हमारे इधर किसी भी बड़े रेल हादसे में चालक को दोषी ठहराने की विभागों की काफी पुरानी परंपरा रही है, क्योंकि ज्यादातर मामलों में इनकी जान पहले ही चली जाती है। बाद में दुर्घटना का असली कारण क्या था, यह कभी किसी को पता नहीं चलता क्योंकि अपने यहां के लोगों की याददाश्त काफी कमजोर है। रेल अधिकारियों को भी अपनी मनोवृति और काम करने के ढंग में बदलाव करना ही होगा। कानपुर की रेल दुर्घटना ड्राइवर की लापरवाही से नहीं, बल्कि ऊपर के अधिकारियों की लापरवाही से हुई। खबरों में यही आया है कि जब ट्रेन झांसी से कानपुर के लिए रवाना हुई तब कुछ देर बाद ही एक बोगी में झटके आने लगे और विचित्र प्रकार की आवाजें आने लगीं। ड्राइवर ने कई  बार ट्रेन रोकी, समझने की कोशिश की। जब खराबी समझ में नहीं आई तो ऊपर के अधिकारियों को समस्या बताई। ऊपर से आदेश मिला कि कानपुर सेंट्रल स्टेशन पहुंचकर कर मरम्मत करवाओ। काश ऐसा आदेश देने वाले अधिकारी ने एक पल यह भी सोच लिया होता कि उसके लापरवाहीपूर्वक आदेश का क्या परिणाम हो सकता है।

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