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बेटी बचाने की दिशा में सुखद फैसला

By Dabangdunia News Service | Publish Date: Nov 18 2016 10:55AM | Updated Date: Nov 18 2016 10:55AM
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-डॉ. हेमलता मीणा
प्रोफेसर और बेटी बचाओ आंदोलन से सम्बद्ध


देश के सर्वोच्च न्यायालय ने बुधवार को अपने एक आदेश में गूगल, याहू व माइक्रोसॉफ्ट जैसे सर्च इंजनों को कहा कि वे 36 घंटे के भीतर अपनी-अपनी वेबसाइटों से भारत में प्रसव पूर्व लिंग-परीक्षण निर्धारण से संबंधित विज्ञापनों को हटाएं। सर्वोच्च अदालत ने गिरते लिंगानुपात पर चिंता व्यक्त करने के साथ ही सरकार को निर्देश दिया कि इन सर्च-इंजनों की निगरानी के लिए सरकार एक नोडल एजेंसी की नियुक्ति करे। देश में  अवैध लिंग परीक्षण के लिए पहले से ही पीसीपीएनडीटी एक्ट जैसा कड़ा कानून है, उसके बावजूद स्थिति बदतर होती जा रही है।

इसका कारण कानून को प्रभावी तरीके से लागू न कर पाना तथा अन्य कई तकनीकी पहलुओं की अड़चनें हैं, जिसके कारण एजेंसियां अवैध  लिंग-परीक्षण करने वाले लोगों को नहीं पकड़ पाती है, जिनमें गूगल, याहू और माइक्रोसॉफ्ट जैसे सर्च इंजनों पर विज्ञापन देकर चलाया जा रहा यह अवैध कारोबार भी  है। इसमें मुनाफा बहुत है और पकड़ पाना बहुत मुश्किल है। ऐसे हालात में सर्वोच्च न्यायालय का आदेश एक उम्मीद लेकर आया है उन बेटियों के लिए, जिनको आज महिलाओं के प्रति दोयम दर्जे की मानसिकता के कारण पैदा होने से पहले ही मारा जा रहा है। स्थिति बहुत खतरनाक मोड़ पर पहुंच गई है और वो भी इस देश में जहां ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता’ अर्थात जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता रमन करते हैं, वाली संस्कृति की धारा बहती रही है।

सन् 2011 में हुई जनगणना के आकड़ों के अनुसार देश में महिलाएं कई राज्यों में पुरुषों के मुकाबले काफी कम  हैं। देश की  आजादी के बाद की पहली जनगणना जो  सन् 1951 में हुई थी, के आंकड़ों के अनुसार प्रति हजार पुरुषों पर 946 महिलाएं थीं, लेकिन अफसोस आजादी के दशकों बाद भी यह आंकड़ा प्रति हजार पुरुषों पर 940 महिलाओं पर ही सिमट के रह गया है। देश में सन् 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार 3.73 करोड़ महिलाएं कम हैं, कुल देश की जनसंख्या 121 करोड़ में से देश में 0-6 आयु वर्ग में लिंगानुपात सन् 1991 की जनगणना के आकड़ों के अनुसार 945 था, जो घटकर सन् 2001 की जनगणना में 927 पर आ गया। यह सन् 2011 की जनगणना के आकड़ों के अनुसार 918 पर आ गया। यहां आंकड़े देश में लिंगानुपात की विषम होती चिंताजनक स्थिति को दर्शाते हैं। यदि हालात यही रहे तो आने वाले वर्षों में स्थिति और चिंताजनक हो सकती है। देश में स्त्री-पुरुष जनसंख्या के हिसाब से भी बराबरी पर नहीं है। देश की आधी आबादी देश का अमूल्य मानव संसाधन है, लेकिन पुरुष की मानसिकता बेटियों के घर, परिवार, राज्य, देश, दुनिया किसी की भी प्रगति में उनके योगदान को पूर्णतया मानने को राजी नहीं है। सारी समस्या नारी के योगदान को समाज द्वारा कमतर  आंकने से ही शुरू होती है।

भारत सरकार और राज्य सरकारों ने अपने-अपने स्तर पर इस स्थिति से निपटने के लिए कई प्रकार से प्रयास किए हैं, लेकिन पिछले 20 वर्षों का देश के लिंगानुपात में महिलाओं की संख्या कम होने के कारण और उनसे निपटने के अब तक के किए गए सम्मिलित प्रयासों का हमारा अध्ययन और अनुभव यह कहता है कि जब तक हम सब इस घृणित बुराई के खिलाफ खड़े नहीं होंगे, इससे मुक्ति संभव प्रतीत नहीं होती। इसके लिए हमें देशभर में आंदोलन चलाने की जरूरत है।

देश की सरकार, बहुत सारे सरकारी, गैर सरकारी संगठन और लोगों के व्यक्तिगत प्रयास इस बुराई के खिलाफ जारी हैं, जिसमें नारी आज भी दोयम दर्जे पर खड़ी नजर आ रही है। आजादी के बाद हमने सभी क्षेत्रों में खूब विकास किया। वो चाहे शिक्षा का क्षेत्र हो या स्वास्थ्य का, चाहे विज्ञान हो या अर्थव्यवस्था का, लेकिन दुर्भाग्य से हम स्त्री -पुरुष के  लिंगानुपात को बराबरी पर नहीं ला पाए। हमें लगता है यह अंतर तब तक नहीं पाटा जा सकता है। जब तक की देश की महिलाओं  के प्रति सोच में आमूलचूल  परिवर्तन नहीं आ जाए। इसके लिए हमें एक ऐसे आंदोलन की जरूरत है जो लोगों की सोच में एक हद तक ऐसा परिवर्तन ला पाए, जिसके आईने में हमें लड़का-लड़की में भेद नजर नहीं आए।  हर बेटी का जीवन बचना चाहिए, उसे मां के  गर्भ में ही नहीं मारा जाना चाहिए। हम इस कन्या भ्रूण हत्या की घृणित बुराई के खिलाफ देशभर में विभिन्न माध्यमों से विरोध  करके बहुत बड़ा योगदान कर सकते हैं।

आज शायद ही कोई होगा जिसने बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ के बारे में न सुना हो, इस  बारे में बहुत चर्चा पूरी दुनिया में हो रही है। देश और बहुत सारे राज्यों की सरकारों ने बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ के कार्यक्रम के तहत कई कार्यक्रम चला रखे हैं, हम फिर भी देश में विषम होती लिंगानुपात  की खाई को कम करने की दिशा में कुछ ठोस नहीं कर पा रहे हैं। इसका कारण यही है कि कई सामाजिक बुराइयों की वजह से हम सब लाचार नजर आ रहे हैं, जिनमें दहेज और बेटियों की सुरक्षा के मुद्दे बड़े कारण है। जब तक हम कन्या भ्रूण हत्या और महिलाओं के प्रति अपराध से निपटने के लिए समाज को जबरदस्त सामाजिक सोच में आमूलचूल परिवर्तन के द्वारा तैयार नहीं कर लेते इस जघन्य बुराई से निजात पाना संभव नहीं लगता। अत: अब समय आ गया है कि हम सब बेटियों को पैदा होने दें और उन्हें सुरक्षित माहौल दें, तभी हम लिंगानुपात की बिगड़ती स्थिति को ठीक कर पाएंगे और देश की गौरवशाली संस्कृति की परंपरा अनुसार देश की बेटियों को उनका वो अधिकार दिला पाएंगे जो उन्हें बहुत पहले ही मिल जाना चाहिए था। देश में बेटियां पैदा होंगी, पढ़ेंगी तो सशक्त बनेगी। संयुक्त राष्ट्र संघ  तक ने माहिला सशक्तिकरण के लिए अनवरत प्रयास किए हैं। इन सब प्रयासों की वजह है दुनिया में महिलाओं का सशक्त न होना।

इतनी प्रगति के बाद भी महिलाओं की स्थिति समाज में दोयम दर्जे की ही है। यही कारण है कि प्रयास हो रहे हैं पर अफसोस ये कि महिला सशक्तिकरण और बेटी बचाने के प्रयास उस देश में करने की जरूरत पड़ रही है, जहां बेटियों को पूजने की संस्कृति रही है।

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