26 Apr 2024, 14:57:50 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-डॉ. ब्रह्मदीप अलूने
लेखक समसामयिक विषयों पर लिखते हैं।


विजयादशमी पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लखनऊ के ऐतिहासिक ऐशबाग के रामलीला मैदान में अपने भाषण की शुरुआत जय श्रीराम और भाषण की समाप्ति जय जय श्रीराम के उद्घोष से की तो ऐसा लगा की स्वतंत्रता के 70वें साल में भारत संकीर्ण धर्मनिरपेक्षता से आगे बढ़कर असली धर्मनिरपेक्षता को अपनाने की ओर आगे बढ़ रहा है। सभा में मौजूद लोगों की भीड़ ने प्रधानमंत्री के उद्घोष के साथ जब जयघोष किया तो इस बात की पुष्टि भी हो गई की सचमुच भारत बदल रहा है। भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने के पीछे इस देश के संविधानवेत्ताओं की यह गहरी समझ थी कि इस देश में सभी धर्मों का सम्मान हो और सभी का समुचित विकास भी।

वर्तमान में दुनिया में सबसे बड़े लोकतंत्र भारत को एक उदार धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में पहचान तो मिली है, लेकिन हकीकत तो यह है कि स्वतंत्र भारत में अधिकांश समय तक सत्तारूढ़ रही राजनीतिक पार्टियों ने बहुसंख्यकवाद को हावी न होने देने की संकीर्णता को लेकर इस धर्मनिरपेक्षता के साथ खूब खिलवाड़ किया। उन्होंने लगातार देश की पंथ निरपेक्षता और धर्मनिरपेक्षता को अपने ढांचे में ढाला और अंतत: इस देश की जनता इस बात को समझ गई कि सिपहसालारों की यह धर्मनिरपेक्षता नकली है। यही कारण है कि देश में भाजपा का उभार हुआ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उस पार्टी के नहीं वरन् देश के एक सशक्त और लोकप्रिय नेतृत्व भी बने।

स्वतंत्र भारत की शुरुआत में आदर्श धर्मनिरपेक्षता का आलम यह था कि 1951 में देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद सोमनाथ मंदिर के जीर्णोंद्धार में शामिल होने जा रहे थे, तब पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रपति से मंदिर का उद्घाटन न करने का आग्रह करते हुए कहा कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रमुख को इससे बचना चाहिए, लेकिन राजेंद्र प्रसाद ने नेहरू के आग्रह को नजरअंदाज कर मंदिर का उद्घाटन किया और कहा कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, लेकिन नास्तिक राष्ट्र नहीं है। भारत की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल न उठें इसके प्रति पंडित नेहरू इतने सजग थे कि उन्होंने सोमनाथ मंदिर के नवीनीकरण और पुनर्स्थापना का काम देख रही कमेटी से खुद को अलग कर लिया था। भारत में धर्मनिरपेक्षता यहां के जनमानस के आचार-विचार में रही है, लेकिन सत्ता में रही अधिकांश राजनीतिक पार्टियों ने धर्मनिरपेक्षता मजबूत करने के लिए बहुसंख्यक हिंदुओं के हितों से समझौता किया, यहां तक कि सुधार के लिए उनकी जीवन पद्धति को प्रभावित भी किया, हालांकि इसके उजले परिणाम भी हुए, लेकिन राजनेताओं ने अन्य धर्मों से लगातार दूरी बनाए रखी। इस प्रकार भारत के पुनर्निर्माण और विकास के लिए किसी एक धर्म में सुधार को लगातार लक्ष्य पर रखना अंतत: कांग्रेस के पराभव का कारण बन गया।

इंदिरा गांधी द्वारा अंतरराष्ट्रीय इस्लामिक सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधि मंडल को भेजने की हड़बड़ी हो या राजीव गांधी द्वारा मुस्लिम धर्मगुरुओं के दबाव में आकर मुस्लिम महिला अधिनियम 1986 पारित करने की जल्दबाजी अंतत: इस राष्ट्र में कट्टरपंथी शक्तियों को मजबूत करने वाली ही साबित हुई। हालात यहां तक बिगड़े कि खाड़ी युद्ध के दौरान अमेरिकी वाहनों को भारत में ईंधन उपलब्ध कराया गया तो इसे मुस्लिम विरोध से जोड़कर कांग्रेस के समर्थन की सरकार की बलि दे दी गई। इस दौर के विपक्ष के कद्दावर नेता राहुल गांधी हनुमानगढ़ी तो जाते हैं, लेकिन रामलला जाने से उन्हें गुरेज है, यह वहीं रामलला है जिसके पट उनके पिता राजीव गांधी ने खुलवाए थे। इस समूचे ऐतिहासिक घटनाक्रम से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वतंत्र भारत में अधिकांश समय तक सत्ता में रही कांग्रेस बहुसंख्यकों के धार्मिक रीति-रिवाजों से इस आधार पर दूर रही कि कहीं विश्व में यह संदेश नहीं जाए कि भारत की धर्मनिरपेक्षता नकली है। वास्तव में भारत एक ऐसा दुर्लभ लोकतांत्रिक राष्ट्र है, जहां लंबे समय तक बहुसंख्यक धर्म के प्रति आग्रह न रखने के बावजूद कांग्रेस लंबे समय तक सत्ता में बनी रही। अफसोस इस बात का है कि वर्तमान में जब यह राजनीतिक पार्टी रसातल की ओर जा रही है, फिर भी इसके नुमाइंदे यह समझने में नाकाम रहे हैं कि धर्म निरपेक्षता के प्रदर्शन का मतलब बहुसंख्यकों के धर्म से दूरी कतई नहीं है।

बहरहाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दशहरे के अवसर पर लखनऊ में जय श्रीराम का उद्घोष किया तो विपक्ष चाहे इसे उत्तरप्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव से जोड़कर क्यों न देखें, लेकिन सच तो यह है कि पहली बार किसी राजनेता ने देश के बहुसंख्यकों की नब्ज को पकड़ा है और वे अपनी सभ्यता और संस्कृति को सही मायनों में स्थापित करने को वचनबद्ध भी नजर आते हैं। क्या किसी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रधानमंत्री को ऐसा करना चाहिए, जैसा करने से पहले पूर्व प्रधानमंत्री ने राजेंद्र प्रसाद को रोका था। रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब इंडिया आॅफ्टर गांधी में लिखा है, नेहरू सोचते थे कि सरकारी अधिकारियों को सार्वजनिक जीवन में धर्म या धर्मस्थलों से नहीं जुड़ना चाहिए, वहीं राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद मानते थे कि उन्हें सभी धर्मों के प्रति बराबर और सार्वजनिक सम्मान प्रदर्शित करना चाहिए। 

धर्म हमारी आस्था और जीवन पद्धति से जुड़ा होता है, धर्म को राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता। भारत में वैदिक धर्म को माना जाता है और हमारी जीवन पद्धति और सोच में वसुदेव कुटुंबकम् की भावना रही है। स्वतंत्रता के पहले भी भारत में विभिन्न धर्मों के लोग रहते थे, दुनिया के अधिकांश धर्मों की जन्मस्थली भारत ही है। दुनिया में यहूदी धर्म को आक्रामक धर्म माना जाता है एवं दुनिया इसे संदेह की दृष्टि से देखती रही तब भी इस धर्म की धर्मावलंबी इस्रायल के बाद भारत को दूसरा घर मानते हैं । अत: हिंदू जीवन पद्धति से देश को अलग रखने की सोच वास्तव में संकीर्ण धर्मनिरपेक्षता है। असली धर्म निरपेक्षता तो सभी धर्मों का सम्मान करने से है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लखनऊ में रामलला का मंचन देखना और जय श्रीराम का उद्घोष करना सराहनीय कदम है और इससे देश की धर्मनिरपेक्षता मजबूत ही होगी। यह बात इस देश की कथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को अब भी समझ आ जाना चाहिए कि बहुसंख्यकवाद से धर्मनिरपेक्षता को कोई खतरा कम से कम भारतीय जीवन पद्धति में तो नहीं है ।

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