26 Apr 2024, 17:03:42 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-डॉ. ब्रह्मदीप अलूने
लेखक समसामयिक विषयों पर लिखते हैं।


मध्यकाल तक भारतीय विदेश नीति और सुरक्षा नीति के प्रणेता कौटिल्य ने कहा था कि विजय की इच्छा रखने वाला राजा अपने और शत्रु के बल, अबल, शक्ति, देशकाल, यात्राकाल, सेना की उन्नति का समय, पीछे के राजाओं का आक्रमण, जन-शय, धन व्यय, लाभ-हानि, बाह्य तथा अभ्यांतर विपत्तियों के प्रतिकार आदि पर पूरी तरह विचार करके विजय यात्रा के लिए तैयारी आरंभ करें। विजय यात्रा के समय राजा को उत्साह, प्रभाव, मन तीनों शक्तियों से सुसम्पन्न होना चाहिए। आधुनिक विश्व में विजय यात्रा पर राष्ट्राध्यक्ष निकलते हैं और उनके साथ लाव लश्कर यह तय करता है कि किस देश से क्या हासिल किया जा सकता है। बहरहाल स्वतंत्र भारत में जन्मे भारत के पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की कमान संभालने के बाद दुनिया भर की यात्राएं की और उसे विश्व विजय के तौर पर देखा गया।
वास्तव में दुनिया का माहौल भारत के पक्ष में करने के मोदी के प्रयास देश दुनिया में सराहे भी गए, लेकिन देश की सुरक्षा एवं विकास के लिए महत्वपूर्ण यह है कि इन यात्राओं के क्या दूरगामी परिणाम हुए। एनएसजी की सदस्यता हासिल करवाने के अमेरिकी दावें के बावजूद पाकिस्तान ने भारत के मंसूबों पर पानी फेर दिया और भारत को यह अहसास कराया कि विश्व राजनीति में वह बदनाम ही सही लेकिन कूटनीतिक खिलाड़ी अवश्य है। कौटिल्य ने एक महत्वपूर्ण बात और भी कहीं थी कि शत्रुओं के प्रयत्नों की समीक्षा करते रहना चाहिए। यह बहुत ही आश्चर्यजनक है कि मध्यकाल में जिस महान अर्थशास्त्री ने अपनी कूटनीति के बदौलत सशक्त राजघराने को नष्ट कर दिया था, उस महान कूटनीतिज्ञ को समझने का दावा करने वाले भारतीय विश्व राजनीति की बिसात पर लगातार अपने शत्रु से मात खा रहे है।

ताजा घटनाक्रम एनएसजी में भारत की नाकामी से ज्यादा महत्वपूर्ण है। मास्को में तैनात पाकिस्तान के राजदूत काजी खलील उल्लाह ने घोषणा की कि पाकिस्तान और रुस इस साल के अंत में एक युद्ध अभ्यास करेंगे, जिसमें दोनों देशों के सैनिक शामिल होंगे और पहली बार हो रहे इस युद्ध अभ्यास को फ्रेंडशिप 2016 नाम दिया गया है। पाकिस्तान बनने के 69 साल में ऐसा पहली बार होगा, जब वह भारत के दोस्त रूस के साथ सैन्य अभ्यास करेगा। शीत युद्ध में अमेरिका के खास सहयोगी पाकिस्तान ने रूसी फौजों को अफगानिस्तान से ढकेलने के लिए तालिबान नामक जो अमेरिकी व्यूह रचना की थी, उससे पाकिस्तान, रूस के लिए एक खतरनाक शत्रु बन गया था। रूस को चेचन्य चरमपंथियों से गंभीर खतरा है और उसे पाकिस्तान में ही तैयार किया जाता है। इन सब विपरीत परिस्थितियों के बावजूद रूस का पाकिस्तान के साथ सैन्य अभ्यास करने का निर्णय इस क्षेत्र की सुरक्षा के लिए नई चुनौती है। साझा सैन्य अभ्यास दुनियाभर में होते रहे हैं, लेकिन पाकिस्तान और रूस का सैन्य अभ्यास भारतीय सुरक्षा और सामर्थ्य के लिए भी एक गंभीर चुनौती बन सकता है।

साल 2014 में जब पीएम नरेंद्र मोदी और रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन की मुलाकात हुई तो नरेंद्र मोदी का एक जुमला बड़ा चर्चित हुआ था। वो यह था कि भारत में बच्चा भी जानता है कि रूस, भारत का सबसे अच्छा दोस्त है। मोदी ने यह कहने से भी गुरेज नहीं किया कि दोस्तों के विकल्पों के बावजूद रूस भारत के लिए बेहद अहम है, लेकिन पाकिस्तान और रूस में सैन्य तकनीकी सहयोग की संभावना ने मानो सब कुछ बदलकर रख दिया। अंतत: भारत और रूस शीत युद्ध के समय से ही सामरिक साझेदार हैं और उसमें से सेंध लगा लेना दुनिया में एक नए सामरिक गठबंधन की शुरुआत जैसा है। इसके पहले मनमोहन-पुतिन की मुलाकात में पुतिन ने भारत के साथ पारंपरिक दोस्ती पर बल देते हुए कहा था कि रूस का पाकिस्तान को किसी तरह का सैन्य सहयोग नहीं है, क्योंकि उसे भारतीय दोस्तों की चिंताओं का ख्याल है।

विश्व राजनीति में पिछले कुछ दशकों में तेजी से परिवर्तन आया है तथा इन परिवर्तनों ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति के प्रतिमानों को भी बदल दिया है। बदलती विश्व व्यवस्था ने नए कलाकारों को जन्म दिया है और सोवियत संघ के विघटन के बाद तो पूरा वैश्विक परिदृश्य ही बदल गया है। 1962 में चीन युद्ध के बाद भारत-चीन युद्ध और भारत की नाकामी ने यह अहसास कराया था कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति बातों से नहीं नीतियों से चलती है तथा किसी भी देश की विश्व राजनीति में भूमिका उसके आर्थिक, राजनीतिक व सैनिक शक्ति के रूप में विकास व स्थिति पर निर्भर करती है। खासकर 1962 के युद्ध ने भारत के आर्थिक और सामरिक कमजोरी को उजागर किया तथा यह स्पष्ट हो गया कि ऐसी कमियों के चलते विश्व राजनीति में स्थान बनाना नामुमकिन है। इसके बाद 1971 में भारत की गुंगी गुड़िया कही जाने वाली इंदिरा गांधी ने एक रणनीतिक रक्षा संधि से भारत की सुरक्षा को चाक चौबंद कर दिया। इस दौर में यह कहा जाने लगा कि भारतीय विदेश नीति यथार्थवाद की ओर बढ़ रही है। 1971 में सोवियत संघ से मैत्री संधि तथा बंग्लादेश के स्वतंत्र राज्य के रुप में उदय में उसकी निर्णायक भूमिका ने अंतरराष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर पर भारत के कद को बढ़ाया। यह सोवियत संघ से मित्रता ही थी कि अमेरिकी नौ सैनिक बेड़ा हिंद महासागर से ही लौट गया और चीन को खामोशी से अपने मित्र राष्ट्र पाकिस्तान के टुकड़े होते देखना पड़ा। संयुक्त राष्ट्र संघ में अनेक मौको पर भारत को मुंहकी खानी पड़ती यदि रूस का सहयोग नहीं मिला होता। यहां तक कि सुरक्षा परिषद में सदस्यता को लेकर भारत के दावे को  रूस पुरजोर तरीके से उठाता रहा है। कश्मीर को लेकर अमेरिका ने कई बार भारत को घेरने की कोशिश की लेकिन रूस के कारण उसे नाकाम होना पड़ा।

वर्तमान में रूस, भारत का एक प्रमुख सामरिक सहयोगी देश है। भारतीय नौसेना लगभग पूरी तरीके से रूसी उपकरणों तथा रूसी हथियारों से लैस है, जबकि भारतीय वायुसेना में भी 70 प्रतिशत हथियार और उपकरण रूस में उत्पादित है। दुनिया के किसी भी दूसरे देश के साथ भारत का इतने विशाल स्तर पर सहयोग नहीं है। 1974 में भारत द्वारा किया गया परमाणु परीक्षण हो या युद्धपोत पनडुब्बियां, आधुनिकतम टैंक, मिसाइल तकनीकी, स्पेस तकनीकी या पंचवर्षीय योजनाएं रूस ने एक अच्छे मित्र की तरह सदैव भारत के पक्ष में आवाज बुलंद की है। पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा भी था कि रूस एक भरोसेमंद विश्वसनीय रणनीतिक साझेदार है और हमारी विदेश नीति का स्तंभ है। वास्तव में रूस ने लगातार भारत से मित्रता को साबित भी किया।

वास्तव में स्वतंत्र भारत में विदेश नीति के तौर पर गांधी वादी संकल्पवाद को दरकिनार कर नेहरू का जोर देशों की परस्पर निर्भरता पर था और वह अलग-थलग रहने को नकारते थे। तटस्थता या असंलग्नता की नीति से सभी को जोड़े रखना नेहरू की विदेश नीति में शुमार था। इंदिरा गांधी ने यथार्थवाद की छाया से निकलकर आक्रामकता को अपनाया लेकिन उन्होंने संबंधों के संतुलन को साधे रखा। वर्तमान में नेहरू की विदेश नीति को आदर्शवाद कहकर यथार्थवाद की ओर बढ़ने के संकेत राजनीतिक आवश्यकता हो सकती है, लेकिन एक अहम साझेदार का टूट जाना कूटनीति की नाकामी ही है।

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