27 Apr 2024, 07:32:10 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-ओमप्रकाश मेहता
समसामयिक विषयों पर लिखते हैं।


हमारी जन्नत पिछले सवा दो महीनों से कर्फ्यू के साए में है, केंद्र की मोदी सरकार और मगरमच्छ के आंसू बहाने वाली जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती भी कश्मीर की मौजूदा समस्या का हल खोज नहीं पा रही हैं। जहां तक कश्मीर का सवाल है, वहां की राजनीति पर आतंक और अलगाववाद भारी है, और वहां की राजनीति में आतंक और अलगाववाद का सामना करने की हिम्मत किसी में नहीं है, इसीलिए वहां के आतंककियों व अलगाववादियों ने वहां के राजनेताओं को अब तक कठपुतली बना कर रखा है। कश्मीर का अब तक का इतिहास गवाह है कि केंद्र में किसी भी दल की सरकार रही हो, कोई भी प्रधानमंत्री रहा हो, नरसिंहराव या अटलजी सभी ने कश्मीर समस्या का हल खोजने का प्रयास किया है और वहां की स्थानीय सरकारों व मुख्यमंत्रियों ने सहयोग का दिखावा किया है और आज भी वहां वही हो रहा है।

आज तो यह भी लगने लगा है कि मोदी सरकार भी कश्मीरी समस्या के मामले में दोहरा गेम खेल रही है, एक ओर तो केंद्र सरकार यह दिखावा करती रही कि कश्मीर के अलगाववादी स्वयं चलकर सरकार के पास आएंगे तो ही सरकार उनसे बात करेगी। दूसरी तरफ केंद्रीय गृहमंत्री ने ही कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को आगे करके अलगाववादियों को वार्ता का निमंत्रण भिजवाया। इसीलिए सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के खाली हाथ लौट आने के बाद भी यह साफ नहीं है कि केंद्र ने वार्ता का निर्णय महबूबा के दबाव में लिया था या केंद्र सरकार का स्वयं का फैसला था? अब इस घटनाक्रम से तो यह भी साफ हो गया कि सर्वदलीय वार्ता मोदी सरकार की एक सोची समझी चाल थी, जिससे कि इस मामले में प्रतिपक्षी दलों के नेताओं के मुंह बंद किए जा सकें और सारा दोष अलगाववादियों के सिर पर मढ़ा जा सके।

जहां तक कश्मीरी अलगाववादी नेताओं हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी, मीरवाईज उमर फारूख और जेकेएलएफ नेता यासीन मलिक का सवाल है, इनके स्वयं के बच्चे विदेशों में पढ़ रहे हैं और इन्होंने अपने परिवारों को भी पिछले ढाई महीनों से विदेशों में भेज रखा है। इसलिए इस दौर से उनका कोई पारिवारिक लेना-देना नहीं है, वे देशविरोधी कार्यवाहियों के लिए स्वतंत्र है, उन्होंने तो कश्मीर के बेरोजगार युवाओं को भारतीय सेना पुलिस व सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने के लिए मजदूरी पर रख रखा है। वे पाक द्वारा भेजे गए करोड़ों रुपए घाटी में पत्थरबाजी के माध्यम से आतंक फैलाने पर खर्च कर रहे हैं।

कुल मिलाकर इस धरती की जन्नत कुछ मुठ्ठीभर देशद्रोहियों के कारण जहन्नुम में तब्दील होती जा रहा है, और हमारे भाग्यविधाता मौन दर्शक बने बैठे हैं, क्या यह हमारी जन्नत हमारे हाथ से फिसलने का संकेत नहीं है? आज तो स्थिति यह है कि एक ओर जहां हमारे आधुनिक भाग्य-विधाताओं का सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल अलगाववादियों के ‘असम्मान तमगे’ को गले में लटका कर वापस लौट आया, वहीं केंद्र सरकार की ही राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (एनएसजी) द्वारा तैयार की गई गोपनीय रिपोर्ट कह रही है कि न सिर्फ कश्मीर बल्कि देश के कई हिस्सों में आतंकी व अलगाववादी गतिविधियों को उन क्षेत्रों की जनता का समर्थन हासिल हो रहा है। जब तक इसे रोका नहीं जाता, तब तक ऐसे देश विरोधी कृत्यों से देश को जूझते रहना पड़ेगा। अब जब देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी सम्हालने वाली हमारी अपनी विश्वस्त एजेंसी ही ऐसी रिपोर्ट सरकार को सौंप रही है, तो फिर सरकार से समय रहते आंखें खोलने की अपेक्षा तो की ही जा सकती है? इस रिपोर्ट को उन राज्यों की घटनाओं के आधार पर तैयार किया गया, जिनमें बम विस्फोट, धमाके और अन्य आतंकी हिंसक वारदातें हुई, जिनमें कश्मीर भी शामिल है।
जहां तक केंद्र सरकार द्वारा कश्मीर संकट के हल करने की दिशा में उठाए जाने वाले कदम का सवाल है, केंद्र ने कश्मीर के अलगाववादी नेताओं को सरकार के दामाद के रूप में अब तक दी जा रही सुविधाओं को छीनने का फैसला लिया है। वैसे सरकार के इस कदम से अब यह पहली बार सार्वजनिक हुआ कि इन पाक-परस्तों को हमारे देश की सरकारें अब तक हमारे सांसदों व मंत्रियों से भी अधिक सहायता-सुविधाएं उपलब्ध करवाती आ रही थी। हुर्रियत और जेकेएलएफ के नेताओं को न सिर्फ जेड प्लस श्रेणी की सुरक्षा सुविधा बल्कि इनकी सुरक्षा में एक हजार वे पुलिसकर्मी तैनात थे, जिन पर आज इन्हीं के लोग पत्थरों की बरसात कर रहे हैं।

इन्हें इनकी देश विरोधी साजिशें रचने के लिए सरकारी खर्च पर कार्यालय और सरकारी खर्च पर ही एक साल में चार बार विदेश यात्राओं की सुविधाएं भी दी जा रही थीं। इसके साथ ही बीमार पड़ने पर इनका इलाज खर्च भी सरकार ही वहन करती थी, जिसमें 90 फीसदी खर्च केंद्र व दस फीसदी जम्मू-कश्मीर सरकार का हिस्सा था। अब ऐसी स्थिति में इन नेताओं का देशविरोधी कृत्य धोखेबाजों के दायरे में तो आता ही है।

इसके बावजूद क्या केंद्र सरकार यह मानती है कि पाक से करोड़ों-अरबों की राशि प्राप्त करने वाले ये नेता यह दामादी सुविधाएं छीन लेने से सरकार के सामने आत्मसमर्पण की मुद्रा में आ जाएंगे? यदि सरकार ऐसा सोचती है तो यह उसकी सबसे बड़ी गलतफहमी होगी, इसके बजाय सरकार को कश्मीर को बचाने के लिए बहुत सख्त कदम उठाने पड़ंगे और यही देश की सरकार से अपेक्षा भी है, कश्मीर के चंद देशद्रोही नेताओं को विश्वास में लेने के प्रयासों की अपेक्षा सरकार को कश्मीर की पीड़ित आम जनता का विश्वास जीतने का प्रयास करना होगा। वहां तैनात सुरक्षा बलों पर पत्थर बरसाने वाले युवा हाथों को रोजगार मुहैया कराना होगा और पीड़ित जनता को सुरक्षा की गारंटी देनी होगी। जब तक ये कदम नहीं उठाए जाते तब तक कश्मीर में शांति को बहाली संभव नहीं है, देश विरोधी तत्वों के खिलाफ सख्ती और आम जनता के प्रति सहयोग-सहानुभूति ये दो ही कदम कश्मीर में शांति बहाली में सहायक हो सकते हैं, फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आतंकवादी और अलगाववादी संरक्षक पाकिस्तान से कैसे निपटना यह सरकार पर निर्भर है, किंतु सरकार की प्राथमिकता कश्मीर में शांति बहाली ही होना चाहिए और वह भी कश्मीरियों का दिल जीत कर।

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