27 Apr 2024, 01:41:11 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-सुशील कुमार सिंह
निदेशक, रिसर्च फाउंडेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन, देहरादून


कभी मुख्यमंत्री होने की वजह से किसी को ताजिंदगी सरकारी मकान नहीं दिया जा सकता। यह हालिया बयान देश की शीर्ष अदालत ने एक अगस्त को उस वीआईपी संस्कृति के विरुद्ध फैसला देते हुए कहा जिसमें पूर्व मुख्यमंत्री बरसों से पद पर न रहने के बावजूद सरकारी बंगले पर काबिज हैं। इस मामले में सोमवार को अहम फैसला सुनाते हुए उच्चतम न्यायालय ने उत्तर प्रदेश के छह पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी बंगला खाली करने का आदेश दे दिया है, जिसे दो महीने के भीतर लागू किया जाना है। कोर्ट ने कड़ा रुख अख्तियार करते हुए यह भी कहा कि पूर्व मुख्यमंत्री सरकारी बंगले के हकदार नहीं है लिहाजा बंगला खाली करें।

उच्चतम न्यायालय का यह फैसला एक गैर सरकारी संस्था लोक प्रहरी द्वारा दायर की गई एक याचिका के चलते संभव हुआ। शीर्ष अदालत के इस फैसले के चलते अब यह माना जा रहा है कि अन्य राज्यों पर भी इसका असर देखने को मिलेगा। यदि इस फैसले को उत्तरप्रदेश से बाहर उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं बिहार सहित सभी प्रांतों पर प्रभावी किया जाए तो प्रत्येक राज्य से कई पूर्व मुख्यमंत्री इसकी जद में जरूर आएंगे। गौरतलब है कि किसी भी प्रदेश के पूर्व कार्यकारी प्रमुख को यह सुविधा देना कहां तक उचित है कि पद पर न रहने के बावजूद भी वैसी ही सुख-सुविधाएं भोगते रहें। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से मुलायम सिंह यादव, मायावती, गृहमंत्री राजनाथ सिंह, रामनरेश यादव और राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह सहित नारायण दत्त तिवारी सीधे तौर पर प्रभावित होंगे। इन सभी छह पूर्व मुख्यमंत्रियों को अब 1997 से या जब से वे बंगले में हैं उसमें 15 दिन की अवधि को छोड़कर बाजार दर से किराया देना होगा। शीर्ष अदालत ने 1997 के उस नियम को भी अवैध करार दे दिया है जिसके चलते इन्हें बंगले में कब्जा बनाए रखने की इजाजत थी।

जनता रोटी, कपड़ा और मकान के लिए जूझ रही है और जनता के सेवक कई बीघे के बंगले पर कब्जा किए बैठे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इसी निर्णय के अंदर कई और बातों का भी खुलासा किया है। कोर्ट ने कहा मुख्यमंत्री और कैबिनेट मंत्री पद के बाद एक समान दर्जे पर हैं। 1997 का उत्तर प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्रियों के लिए बनाया गया नियम भेदभावपूर्ण है। इसे सही नहीं ठहराया जा सकता। वह भी तब जब वेतन और भत्ते का विशय दूसरे कानून 1981 के तहत संचालित हो रहा हो। न्यायालय ने यह भी प्रश्न उठाया कि पूर्व सीएम को अलग से व्यवस्था क्यों? जब हाई कोर्ट जज, मुख्य न्यायाधीश, राज्यपाल तथा विधानसभा अध्यक्ष जैसे संवैधानिक पद वालों को सेवा के बाद मुफ्त या मामूली किराए पर आवास देने का प्रावधान नहीं है तो पूर्व मुख्यमंत्रियों के मामले में इसे कैसे उचित ठहराया जा सकता है। अदालत ने दूध का दूध, पानी का पानी करने के उद्देश्य से यह भी कहा कि देश में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्रियों को ही जीवनभर आवास देने का प्रावधान है। फिलहाल बंगले को लेकर चली इस लंबी लड़ाई के बाद आए इस फैसले से कइयों में उथल-पुथल मची होगी। गौरतलब है कि सरकारी बंगले के विवाद में जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला भी फंस चुके हैं। सबके बावजूद अच्छी बात यह है कि आज के दौर में उन तमाम के खिलाफ आवाज उठने लगी है, जो मनमाने नियमों के तहत मनमाने तरीके से सुविधाएं जुटा रहे हैं। साफ है कि देश में अब वीआईपी संस्कृति देर तक नहीं चलने वाली। प्रजातांत्रिक देशों में समानता का सिद्धांत बड़ी शिद्दत से महसूस किया जाता है। बावजूद इसके निजी हितों को लेकर सत्ताधारक नए नियमों का निर्माण कर देते हैं या पुराने में सेंधमारी करते हैं। उन्हें यह समझना चाहिए कि केवल आरोग्य घटक से दुनिया नहीं बदलती। इसके लिए उपलब्धि घटक का होना अनिवार्य है, हालांकि पूर्व मुख्यमंत्रियों के बंगले की कब्जेदारी को लेकर आए अहम फैसले में 12 साल का लंबा वक्त खर्च हुआ पर इस निर्णय से रसूखदारों में व्याप्त विसंगतियों को दुरुस्त करने का परिप्रेक्ष्य भी निहित है। साल 2004 में लोक प्रहरी नाम की एक संस्था ने जनहित याचिका डालकर पूर्व मुख्यमंत्रियों को आवंटित आवास को लेकर शीर्ष अदालत में चुनौती दी थी। वर्ष 2014 में उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में सुनवाई पूरी कर ली थी परंतु आदेश सुरक्षित रख लिया था जिसे अब सुनाया गया। याचिका के मुताबिक इनमें से बहुत ऐसे भी हैं जिनके पास दूसरे बंगले भी हैं फिर भी इन्हें लखनऊ में बंगला मिला हुआ है, जिसका उपभोग इनके परिजन कर रहे हैं। स्थिति, परिस्थिति को देखते हुए लगता है कि बंगलों को आवंटित करने वाली यह विसंगति पेरे भारत में न व्याप्त हो। गृह विभाग की मिली जानकारी से यह भी पता चला है कि छोटे से प्रांत छत्तीसगढ़ में 28 सांसद और विधायक सहित पूर्व मुख्यमंत्री के पास दो-दो सरकारी बंगले हैं। इस मामले में बाकायदा तफ्तीश की जाय तो भारत के 29 राज्यों में कई छत्तीसगढ़ की भांति ही होंगे। यह सही है कि सियासतदान से बेहतर शायद ही कोई पद का बेहतर फायदा उठा पाता हो और शायद ही कोई इनके जैसा चतुर खिलाड़ी हो पर इन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह सुविधा सेवा और पद से जुड़ा था न कि उस पर हमेशा के लिए कब्जा दिया गया था। देश को चलाने वाले नेता आए दिन गरीबों और वंचितों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाते रहते हैं परंतु अपने मामले में बिल्कुल उलट हैं। शक्ति और संपन्नता के मामले में जहां से भी रसूख इकट्ठी करनी हो पीछे नहीं रहते। कई तो ऐसे भी हैं जिनका दिल्ली से लेकर प्रदेश की राजधानियों में बंगलों का अंबार लगा है साथ ही स्थान विशेष पर स्वयं का निजी घर भी है बावजूद इसके पूर्व मुख्यमंत्री होने के कारण उस पर हकदारी करना मानो उनकी विरासत हो। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सत्ता में बैठे लोग साधनहीन जनता के बजाय अपने लिए अधिक से अधिक संसाधन जुटा कर प्रजातांत्रिक मूल्यों पर गहरा आघात नहीं करते? क्या एक बार सत्ता पर आने के बाद ताउम्र उसी रसूख को बनाए रखने के लिए इनके द्वारा की गई यह मनमानी नहीं है। प्रत्येक पांच वर्ष पर जिस जनता से मत हासिल करते हैं उसी के टैक्स के पैसों से अपने लिए आरामदायक व सस्ती जिंदगी जुटाते हैं। राजधानी के सबसे पॉश इलाके में बने बंगलों में रहने वाले नेता किराए के नाम पर एक बेडरूम सेट की भी कीमत नहीं देते हैं, मसलन मुलायम सिंह यादव एवं कल्याण सिंह का लखनऊ में आवंटित बंगले का किराया दस हजार रुपए प्रतिमाह है, जबकि रामनरेश यादव मात्र तीन हजार ही किराया चुकाते हैं। इतना ही नहीं मॉल एवेन्यू इलाके में आवंंटित बंगले में रहने वाली मायावती तो एक रुपया भी किराया नहीं देती हैं। उक्त परिप्रेक्ष्य इस बात को भी दर्शाते हैं कि नियम कानून बनाने वाले अपने मामले में कितने संकीर्ण हैं। एक घर का सपना लेकर करोड़ों लोग रोजाना जिस देश में जद्दोजहद कर रहे हों। वर्ष 2022 तक जहां मोदी सरकार करोड़ों मकान बनाने के दावे कर रही हो। सबके बावजूद सकून की बात यह है कि हमारे देश में एक स्वच्छ और निष्पक्ष न्यायपालिका है जो समय-समय पर नीति-निर्धारकों एवं इसके कार्यान्वयन करने वालों को अपने फैसले से सबक सिखाती रहती है।

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