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हिंदी में अन्य भाषाओं का प्रचलन : कितना अच्छा, कितना सार्थक

By Dabangdunia News Service | Publish Date: Aug 2 2016 10:29AM | Updated Date: Aug 2 2016 10:29AM
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-शरीफउद्दीन अन्सारी
दबंग दुनिया से जुड़े पत्रकार


हिंदी में अन्य भाषाओं का प्रचलन हिंदी के लिए आशीर्वाद है, क्योंकि संसार इतना विराट है कि इसे किसी एक भाषा में बांध देना संभव नहीं। अकेले हिंदुस्तान की बात करें, तो सिर्फ हिंदी भाषी राज्यों को छोड़ अन्य प्रदेशों में ही बिना अन्य भाषा का सहारा लिए काम चलाना कठिन-सा हो जाता है।

अन्य भाषाओं का उपयोग करना जहां हमें संवाद स्थापित करने में सरलता प्रदान करता है, वहीं सांस्कृतिक रूप से अन्य लोगों से नजदीकी बढ़ाता और शब्दों की बारंबारता (रिपीटेशन) से बचाता है। यही नहीं, संवाद को खूबसूरत और सुविधाजनक भी बनाता है। शायद इन्हीं कारणों से हम शाला, पाठशाला, विद्यालय को स्कूल, कार्यालय को दफ्तर/आॅफिस, रेलवे स्टेशन पड़ाव, ठिकाना को स्टेशन, चिकित्सक को डॉक्टर, यंत्री, अभियंता को इंजीनियर और चिकित्सालय को अस्पताल, दवाखाना ज्यादा बोलते/लिखते हैं। ये तो कुछेक उदाहरण ही हैं। चाहने पर, प्रचलन में आए ऐसे शब्दों की सूची काफी लंबी की जा सकती है। मैंने एक बार प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक के मुख पृष्ठ पर 8-10 लाइनों की खबर का शीर्षक पढ़ा था-'मानसून चार हफ्ते लेट'। पढ़कर आश्चर्य हुआ और रोचक भी लगा कि चार शब्दों के इस हैडिंग में चार भाषाओं (क्रमश: अरबी, हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी) का समावेश था।

ऐसे ही एक अखबार में व्यस्त मार्ग के किनारे पर पंक्तिबद्ध बैठे आवारा पशुओं का फोटो 5 कॉलम में छपा था और चित्र विवरण के नाम पर सिर्फ लिखा था-'र्पाकिंग!' यानी अन्य भाषा के इस एक शब्द के जरिए संपादक ने जहां आवारा पशुओं की समस्या को लेकर अव्यवस्था पर प्रहार कर डाला, वहीं व्यंग्यात्मक प्रस्तुति देकर अपनी कलम को पठनीय और रोचक भी बना डाला। कहने का आशय है कि अन्य भाषा का उपयोग करके यदि हम आकर्षक और रोचक तरीके से अपनी बात रख सकते हैं, तो इसमें बुरा क्या है। उक्त बातों का आशय यह कतई नहीं कि अन्य भाषाओं का उपयोग करना जरूरी ही है, बल्कि यह बताना है कि जिस शब्द के जरिए हम सामने वाले को जितना जल्दी और जितना अच्छा समझा सके, वह सर्वथा उचित है। हां, कुछ लोग स्वयं को ज्यादा प्रभावी साबित करने के लिए अन्य भाषाओं के शब्दों, विशेषकर अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हैं। ऐसे लोगों में वे भी शामिल हैं, जिन्हें अंग्रेजी का ज्ञान तो क्या, भान तक नहीं है। ऐसी ही कुछ बानगी पिछले दिनों दिखाई दी- एक विवाह कार्यक्रममें दूल्हे के अशिक्षित पिता अपने कार्यकर्ताओं को दायित्व सौंपते समय बार-बार कह रहे थे कि अमुक अजरमेंट (अरैंजमेंट) तुम करना, वह सिस्टम (आइटम) यहां रखना। ऐसे ही एक अन्य शख्स राजनीति पर चल रही चर्चा में बोले- फलां नेता का यह इंस्ट्रूमेंट (स्टेटमेंट) बहुत खराब लगा। बहरहाल।

यह भी तय है कि भाषा किसी मुल्क की सरहद को नहीं मानती और वह एक देश की सीमा को पार करके दूसरे राष्ट्र की हद में दाखिल हो जाती है। यही कारण है कि गद्य-पद्य की महफिलें हिंदी के साथ अन्य भाषाओं के शब्दों को लिए ज्यादा सजती-संवरती लगती हैं। यद्यपि हमारे साथ पाकिस्तान के संबंध चाहे जो रहे हो, तथापि वहां की मादरी जबान उर्दू को आज भी हम हिंदी में जोड़कर बोलते-लिखते हैं। यह प्रयोग जबान से चाशनी टपकाने जैसा प्रतीत होता है, तो कलम से मोती निकलने जैसा। इसी वजह से कवि सम्मेलन-मुशायरे के आयोजन में कब सुबह के चार बज जाते हैं, यह कड़ाके की ठंड में भी मालूम नहीं पड़ता।

हमारे देश के सिर्फ हिंदीभाषी राज्यों की ही बात करें, तो 'सरकारी' शब्द को अगर मध्यप्रदेश में 'शासकीय' लिखा जाता है, तो राजस्थान में राजकीय। यह उदाहरण सिर्फ इसलिए कि संबंधित क्षेत्रीय भाषा का टेका लेकर जो शब्द खड़ा हो गया, वो वहां के लिए सरल, सुविधाजनक और प्रचलित बन गया। यही शब्द गोवा, केरल और मिजोरम में जाकर 'गवर्नमेंट' के रूप में इस्तेमाल हो, तो यह वहां का प्रचलन और पहचान है न कि अभिशाप।

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