26 Apr 2024, 06:29:12 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-डॉ. ब्रह्मदीप अलूने
विश्लेषक


किसी दौर में फ्रांस के उपनिवेश रहे उत्तर अफ्रीका के ट्यूनेशिया के बाशिंदे मो. बुहेल ने टेरर ट्रक के जरिए जब नीस में फ्रांसीसियों के उल्लास को मातम में बदलने का दुस्साहस किया तो एक बार फिर आतंकवादियों ने यह साबित कर दिया कि तकनीक आधारित और खुफिया नेटवर्क के जाल से बनी सुरक्षा व्यवस्था को सरल सीधे तरीके से भेदा जा सकता है। मो. बुहेल तो पुलिस की जवाबी कार्रवाई में मारा गया, लेकिन उसने इस नृशंस हत्याकांड से ईसाईयत और इस्लाम को मध्ययुगीन टकराव की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। दुनिया में यूरोप को छोड़कर इस्लामिक प्रभुत्व कायम है। एशिया और अफ्रीका की गरीबी और पिछड़ेपन ने इन इलाकों में धार्मिक उन्माद को भी बढ़ावा दिया और इस्लामिक चरमपंथ के लिए महफूज जमीन भी तैयार की।

धर्म परिवर्तन यहां की हवाओं में घुला और इस्लाम के प्रसार में खासी मदद भी मिली, लेकिन यूरोप इससे अब तक अछूता रहा। इस्लाम को बढ़ाने वाले ईसाईयत और पोप के साम्राज्य से यूरोप में पार नहीं पा सके। यही कारण है कि यूरोप दुनिया का सबसे शक्तिशाली महाद्वीप है और पूरी दुनिया का संचालन यहीं से होता है। जाहिर है यूरोप का साम्राज्य अर्थात दुनिया में ईसाईयत नंबर एक पर है और इस्लाम दूसरे नंबर पर आता है। पिछले कुछ दशकों में दुनिया का राजनीतिक घटनाक्रम तेजी से बदला है और इससे सबसे ज्यादा प्रभावित इस्लामिक राष्ट्र हुए हैं। इन इस्लामिक राष्ट्रों में रहने वाले बाशिंंदों के मन में यह बात घर कर गई कि यूरोप के राष्ट्र उन्हें खुशहाल रहने देना ही नहीं चाहते। आम लोगों की इन भावनाओं को कथित धर्मगुरुओं ने भड़काने का व्यापक पैमाने पर काम किया। राजनीतिक अस्थिरता से चरमपंथी ग्रुप सत्तासीन हुए और उन्होंने धर्म को अफीम की तरह इस्तेमाल किया। पिछड़ेपन और गरीबी को तीसरी दुनिया कहने वाले ये विकसित राष्ट्र अपनी विध्वंशकारी नीतियों को सही ठहराते ठहराते अपने ही द्वारा बुने जाल में फंसते चले गए और अब वे कराह रहे हैं। आतंकवाद अब पहले से ज्यादा सशक्त हो गया है और इस्लामिक आतंकवाद के रहनुमा जानते हैं कि कैसे वे धर्म की आड़ लेकर दुनिया के किसी भी इलाके में रहने वाले बाशिंदे को गुमराह कर सकते हैं। मो. बुहेल भी एक गुमराह नौजवान था। फ्रांस समेत यूरोप के राष्ट्र अपने हितों की स्वार्थपूर्ति में इतने संलिप्त है कि वे अपने नागरिकों की मौत पर आंसू तो बहाते हैं लेकिन आतंक की फसल तैयार करने से गुरेज भी नहीं करते हैं। ये विकसित राष्ट्र शरणार्थियों को न आने दे तो दुनिया में बवाल मच जाता है। अब जब वे ढील देते हंै तो इन्हीं शरणार्थियों का धार्मिक पागलपन उन्हें पालने वाली धरती पर ही कहर बन कर टूटता है। बहरहाल, फ्रांस समेत यूरोप पर इस्लामिक चरमपंथियों के हमलों को इस्लाम के पुनर्जीवन के रूप में अतिवादियों द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है।

फ्रांस के महान शासक नेपालियन बोनापार्ट ने तकरीबन 200 साल पहले कहा था कि कल्पना दुनिया पर शासन करती है तो क्या उनके ही देश पर दुनिया में इस्लामिक शासन स्थापित करने की ख्वाहिश को हकीकत में लाने का प्रयास किया जा रहा है। यह बहस होना वाजिब है। पिछले साल प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखक मिशेल वेलबेक के उपन्यास सबमिशन में यह दावा किया गया था कि साल 2022 तक फ्रांस का इस्लामीकरण हो जाएगा, देश में मुस्लिम राष्ट्रपति होगा। महिलाओं को नौकरी छोड़ने के लिए प्रेरित किया जाएगा और विश्वविद्यालयों में कुरान पढ़ाई जाएगी। उस समय उपन्यास के दावे को लेकर यह बहस छिड़ गई कि यह सच्चाई बयान करने वाली कृति है या किताब की शक्ल में फ्रांस के दक्षिणपंथियों को भड़काने का काम किया गया है। फ्रांस एक बहुसंस्कृतिवादी देश है जहां पर रोमन कैथोलिकों का बाहुल्य है और यूरोप के सबसे ज्यादा मुस्लिम और यहूदी यहां पर रहते हैं। हाल के वर्षों में फ्रांस में आतंकवादी घटनाओं की जो तेजी आई है उसने इस मिथक को तोड़ दिया है कि यूरोप में आतंक का राज कायम नहीं हो सकता। सुरक्षा परिषद का सदस्य होने के साथ ही फ्रांस दुनिया का अग्रणी देश है, जो दुनिया के सामरिक, राजनीतिक और आर्थिक वातावरण को प्रभावित करता है।

फ्रांस को यूरोप में इस्लामिक लोगों के लिए बड़े़ ठिकाने के तौर पर देखा जाता है और यहां मुख्यत: मोरक्को, ट्यूनेशिया, अल्जीरिया जैसे उत्तरी अफ्रीकी देशों के लोग रहते हैं, जिसमें सामान्यत: मुस्लिमों की संख्या ज्यादा है। इन राष्ट्रों पर इस्लामिक कट्टरतावाद छाया हुआ है और ये राष्ट्र गृहयुद्ध और आईएसआईएस के प्रभाव से त्रस्त हैं। फ्रांस एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, लेकिन उसके बावजूद मुस्लिमों का सार्वजनिक स्थानों पर पर्दा या हिजाब पहनने पर प्रतिबंध है। दुनिया में धार्मिक कट्टरता को सोशल मीडिया के जरिए खूब बढ़ावा मिला है और सामान्य लोगों से जुड़ी ऐसी पाबंदियां इस्लामिक आतंकवाद के आकाओं के लिए संजीवनी का काम करती है। इन्हीं धार्मिक भावनाओं को उभार देकर फ्रांस में मुस्लिम आतंकवाद का ताना-बाना बुना जा रहा है। फ्रांस में इस्लाम की पहचान पहले से एक राष्ट्रीय मुद्दा बना हुआ है। पेरिस में पिछले साल व्यंग्य पत्रिका शारली एब्दो के दफ्तर पर चरमपंथी हमला हुआ था, इस हमले से जहां इस्लामिक चरमपंथियों के हौसले बुलंद हुए वहीं फ्रांस में रहने वाले मुसलमान दक्षिणपंथियों की नजर में खलनायक बन गए। फ्रांस की दक्षिणपंथी पार्टियां इस्लाम को चुनौती की तरह देखती आ रही है और ऐसे हमलों के कारण वे मुसलमानों को निशाना बनाने से नहीं चूकते। फ्रांस में लगातार आतंकवादी हमलों ने न केवल यूरोप में इस्लामिक फोबिया के उभार को बढ़ावा दिया है, बल्कि मुसलमानों के यूरोप में होने पर सवाल भी खड़े कर दिए हैं। फ्रांस के साथ ही दुनिया के विकसित राष्ट्रों में भी मुस्लिमों के प्रवेश को लेकर खासी बहस छिड़ी हुई है। अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी की तरफ से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी की दौड़ में शामिल डोनाल्ड ट्रंप ने तो अमेरिका में मुसलमानों के प्रवेश पर पूरी तरह से रोक लगाने की बात कह डाली थी। पिछले साल हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरवान ने यूरोप आने वाले मुस्लिम शरणार्थियों को ईसाई चरित्र के लिए खतरा बताया था।

आधुनिकतम उपकरणों की खोज और सुरक्षा के सभी मानकों को पूरा करने वाले यूरोपियन राष्ट्र संचार के जरिए उफनते धार्मिक उन्माद को रोकने में नाकाम होते जा रहे हैं। इस्लामिक चरमपंथियों के आका दुनिया के किसी भी राष्ट्र में संचार के जरिए कहर बरपाने का माद्दा रखते हैं और उसे अंजाम भी दे रहे हैं। बहरहाल, दुनिया के सामने इस्लामिक आतंकवाद नहीं, संचार से फैलने वाले  वैचारिक आतंकवाद को रोकने की चुनौती है, जिसमें अब तक ये विकसित राष्ट्र नाकाम रहे हैं।

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