-डॉ. ब्रह्मदीप अलूने
विश्लेषक
दक्षिणी पुलवामा में रहने वाले एक शिक्षक के बेटे बुरहान वानी पर कश्मीर की अबोहवा में घुल चुकी आतंकी विचारधारा का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि महज 15 साल की मासूमियत को छोड़कर वह कुख्यात हिजबुल मुजाहिदीन का सदस्य बन गया। बदलते दौर में आतंक की शक्ल भी बदली है और इसके प्रभाव को विस्तृत करने के लिए सोशल मीडिया एक प्रमुख हथियार के तौर पर उभर कर आया है। बुरहान वानी सोशल मीडिया से निकला एक ऐसा आतंकी है जिसने कश्मीर की वादी को गृहयुद्ध की कगार पर ला खड़ा किया है।
बुरहान सोशल मीडिया की ताकत को पहचानता था और कश्मीरी नौजवानों की सोशल मीडिया पर उपस्थिति से वह वाकिफ था। उसने इसी का सहारा लेकर युवाओं के बीच प्रभावशाली होने के लिए अलगाववाद के खतरनाक चेहरे के रूप में उभरने से भी गुरेज नहीं किया। फेसबुक पर आतंकियों के साथ फोटो शेयर करने का दुस्साहस करना और महज 22 साल की उम्र में हिजबुल मुजाहिदीन का कमांडर बन जाना, वानी के आतंकी इरादे का परिचायक है। कश्मीर में सैनिकों और कश्मीरी पंडितों की अलग बस्तियों पर हमले करने की धमकी जैसे दुस्साहस उसके इरादों में शुमार थे। 8 जुलाई को कश्मीर के अनंतनाग जिले में सुरक्षाबलों ने इस कुख्यात आतंकी को मुठभेड़ में मार गिराया और उसके बाद कश्मीर में विरोध का बवाल जो खड़ा हुआ है वह थमने का नाम नहीं ले रहा है। कश्मीर में नागरिक प्रदर्शन और पत्थरबाजी की घटनाएं नई नहीं हैं, लेकिन जो कुछ बुरहान वानी की मौत के बाद शुरू हुआ है, ऐसा लगता है कि वह घाटी के आक्रोश का चेहरा बन गया है। उसकी मौत ने उमड़ी लाखों लोगों की भीड़, हजारों पाकिस्तानी झंडे, भारत मुर्दाबाद के नारे, सैन्य बलों के साथ नागरिकों का सीधा टकराव और अमरनाथ यात्रा को बाधित करने के प्रयास गहरे खतरे की ओर संकेत करते हैं।
वैसे हिमालय के आंगन में बसे कश्मीर का आधुनिक इतिहास, साजिश, ब्लैकमेल, सौदेबाजी और फरेब का इतिहास रहा है। 1947 में राजा हरिसिंह की भारत से सुरक्षा को लेकर सौदेबाजी से उपजा विवाद हजारों सैनिक, असैनिकों की जान ले चुका है और तमाम कोशिशों के बावजूद कश्मीर नीति को लेकर कोई भी सरकारी प्रयास नाकाफी होता है। घाटी के बाशिंदों ने संस्कृति और जीवनशैली की अपनी पहचान विकसित कर ली है, जिसे वे कश्मीरियत कहते हैं। बीते 30 सालों में कश्मीर का आतंक पूरे भारत को आतंकित करता रहा है, पाकिस्तान की शह पर कई आतंकवादी संगठन कश्मीर में खड़े हो गए हैं और उनमें से लगातार कोई न कोई अलगाववादी या उग्रवादी बोतल से जिन्न की तरह बाहर आता है और घाटी में हिंसा का दौर शुरू हो जाता है। अभी तक विदेशी आतंकियों का प्रभाव कश्मीर में देखने में आता था, बुरहान वानी घाटी का बाशिंदा है और उसके पक्ष में कश्मीरियों का विरोध प्रदर्शन कहीं घाटी में स्थानीय और नए आतंकवाद की दस्तक तो नहीं दे रहा है। स्वतंत्र भारत के आगाज से उत्पन्न हुई इस समस्या से भारत की सभी लोकतांत्रिक सरकारें लगातार जूझ रही हैं। शेख अब्दुल्ला के विश्वासघात के बाद भी 1964 में उसे जेल से आजाद कर कश्मीर में शांति बहाली का प्रयास किया गया था। 1965 में पाकिस्तान जनरल अयूब खान का घुसपैठियों के जरिए कश्मीर फतह की कोशिश और भारत द्वारा उसे नाकाम किया जाना, इंदिरा गांधी द्वारा शिमला समझौते द्वारा विश्वास बहाली का प्रयास, पाकिस्तान के जनरल जिया उल हक की भारत में आतंकवाद को दीर्घकालीन योजना के जरिए बढ़ावा देने की नीति और राजीव गांधी और बेनजीर भूट्टो की जुगलबंदी तक भी कश्मीर भारत के लिए एक समस्या अवश्य था लेकिन नासूर नहीं बना था। वास्तव में कश्मीर को अलगाव में धकेलने की शुरुआत गठबंधन सरकारों के दौर में उनकी राजनीतिक कमजोरियों के कारण हुई। 1989 में वी.पी. सिंह के नेतृत्व में गठबंधन सरकार के तत्कालीन गृहमंत्री मो. सईद की बेटी रूबैया का अपहरण और बदले में आतंकियों को छोड़ने की सौदेबाजी में कश्मीर समस्या को नासूर बना दिया। इस घटना के लगभग एक दशक बाद केंद्र में अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में आई गठबंधन सरकार ने कांधार मामले में जिस प्रकार आतंकियों की रिहाई की उसने एक परमाणु शक्ति सम्पन्न देश की राजनीतिक और सामरिक कायरता का बदतरीन उदाहरण तो पेश किया ही, इसके साथ आतंकियों को शह देने के पाकिस्तान के हौसले भी बुलंद कर दिए। एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में कैसे लोकतंत्र के नाम पर राजनीतिक पार्टियों को खिलौना बनाया जा सकता है, यह कश्मीरियों ने सीख लिया। हालात ऐसे है कि कश्मीर जल रहा है लेकिन लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई पीडीपी -बीजेपी सरकार में इतना साहस भी नहीं कि वे उन्मादियों के बीच जाकर बात कर सके। यदि वहां के लोगों से चुने हुए प्रतिनिधि बात नहीं कर सकते तो फिर कश्मीर में कैसा लोकतंत्र है और उसे चलाता कौन है। क्या कश्मीर में नाममात्र का लोकतंत्र है? जिसके तार दिल्ली से जुड़ते हैं यदि यह सही है तो कश्मीर के अलगाव को रोकना किसी के बूते की बात नहीं।
जम्मू-कश्मीर में लंबे समय तक तैनात रहे एवं राजपूताना रेजिमेंट में धर्मशिक्षक रहे डॉ. सैयद उरूज अहमद कहते हैं- कश्सीर की सियासत का एक अहम पहलू यहां का अलग धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन भी है जिसका फायदा अलगाववादी और आतंकी गुट उठाते रहते हैं। यही वजह है कि 90 के दशक में यहां पर आतंकवादियों ने काफी खून खराबा किया। यह स्थिति अचानक निर्मित नहीं हुई अपितु इसके पीछे कई कारण मौजूद थे जिन्हें समझना भी आवश्यक है।
वास्तव में कश्मीर घाटी के समूचे घटनाक्रम को लेकर दिल्ली में राजनीतिक सरगर्मी चल रही है, उसका कश्मीर पर कोई प्रभाव पड़ेगा ऐसा प्रतीत नहीं होता। विरोध प्रदर्शनों में स्थानीय लोग बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं, अलगाववादी भारतीय विरोध का फायदा उठाकर उन्माद पैदा कर रहे हैं और सीमापार से अलगाव के पक्ष में आवाजें बुलंद हो रही हैं। इस समय कश्मीर की मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती की कुछ बयानों के बाद खामोशी आश्चर्यजनक है। अलगाववादियों से उनकी नजदीकियां किसी से छुपी नहीं है, आतंकियों के गढ़ समझे जाने वाले इलाकों से पीडीपी के प्रतिनिधियों का चुना जाना स्पष्ट करता है कि पीडीपी को अलगाववादियों का समर्थन हासिल है। अफसोस है मेहबूबा मुफ्ती मुख्यमंत्री होने के बावजूद आक्रोश को समाप्त करने में कामयाब नहीं हो पा रही है। देश को यह नहीं भूलना चाहिए कि मेहबूबा मुफ्ती के पिता के देश के गृहमंत्री रहते कश्मीर में आतंक का खूनी खेल शुरू हुआ था, अब उनकी बेटी के मुख्यमंत्री रहते कश्मीर 1990 की स्थिति में लौट रहा है।