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Gagar Men Sagar

उपेक्षित होने और अकेलेपन का भाव

By Dabangdunia News Service | Publish Date: Jul 10 2016 11:02AM | Updated Date: Jul 10 2016 11:02AM
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-वीना नागपाल

एक भयानक दुर्घटना हो गई। लगभग अधेड़ावस्था के पड़ाव से गुजरते हुए एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी को इतने चाकू मारे कि उनके घावों से पत्नी की मृत्यु हो गई। चाकू तो उन्होंने अपनी बहू को भी मारे पर वह भागकर अपने कमरे में बंद हो गई।

यह एक संयुक्त परिवार था। अधेड़ावस्था के माता-पिता दोनों बेटों के साथ रहते थे। बड़े बेटे का विवाह हो चुका था, वह और बहू भी साथ ही रहते थे। दोनों बेटे कामकाजी थे। बडे बेटे ने उस व्यापार को संभाल लिया था जिसे पहले पिता ही देखते और चलाते थे। पिता ने एक प्रकार से अब व्यवसाय से छुट्टी ले ली थी और वह अब घर पर ही रहते थे। सास-बहू में भी कोई विवाद नहीं था बल्कि दोनों मिल-जुलकर स्नेह से रहती थीं। यह सारा परिदृश्य कितना सहज व सुखद लगता है। जीवन के इस पड़ाव पर इतना भर तो पर्याप्त होता है।

यह अधूरा सच था। इसका दूसरा पक्ष बहुत गहरे मनोवैज्ञानिक कारणों से जुड़ा है। यदि यह कारण मौजूद नहीं होते तो उम्र के इस मोड़ पर आकर कौन इतनी उत्तेजना में भरकर चाकू उठा लेता और न केवल पत्नी और बहू  को बल्कि स्वयं को  भी मारने की चेष्टा करता? यह मनोवैज्ञानिक कारणों ने धीरे-धीरे इतनी ग्रंथियां बना दी होंगी कि उसके गहरे अवसाद में जाकर सब कुछ विध्वंस करने की इच्छा निरंतर पनपती रही होगी। जो मनोवैज्ञानिक कारण समझ में आ रहे हैं उनमें से एक स्वयं का एकाकीपन होगा। शायद यह तीव्रता से महसूस होता होगा कि वह इस समय बिल्कुल अलग-थलग पड़ गए हैं और उनसे पत्नी से लेकर बेटे तक कोई संवाद या वार्तालाप नहीं करते। कई परिवारों में ऐसा होता है कि अधेड़ावस्था की पत्नियां अपने बेटे-बहू यहां तक कि अपने पोते-पोतियों से इतना घिरकर आत्मीय हो जाती हैं कि उनके लिए उनके पति की उपस्थिति कोई मायने नहीं रखती। वह अपने बेटे-बहू के निकट हो जाती हैं और पति से उनका संवाद लगभग नहीं रह जाता। इसके कारण जो भी रहे हों, परंतु इस उम्र में पति इस तरह के एकाकीपन को सहन नहीं कर पाते और मन ही मन कुंठित हो जाते हैं। इसी तरह का एक मनोवैज्ञानिक कारण अपने व्यवसाय बेटे या बेटों से भी संबंधित है। जब बेटा अपने पिता का व्यवसाय संभाल लेता है तो तब वह स्वयं को सर्वेसर्वा मानकर उनसे किसी प्रकार की सलाह व परामर्श लेना व्यर्थ समझने लगता है। यहां तक कि अपनी व्यस्तता दिखाकर वह उनसे कोई संवाद ही नहीं करते। धीरे-धीरे इस तरह की उपेक्षा मन पर बोझ बन जाती है। कहां तो वह अपने व्यवसाय के कर्ता-धर्ता थे और कहां उनसे साधारण बातचीत भी नहीं की जाती है। क्या यह मनोवैज्ञानिक कारण पर्याप्त नहीं है किसी को भी उपेक्षा व अवहेलना से ग्रस्त करने के लिए? इसके दुष्परिणाम कुछ भी हो सकते हैं। कई बुजुर्ग चिड़चिड़े और अकारण ही बोलने वाले अपनी संतान को समझने में तो पूरा जोर और समय लगा देते हैं पर, बुजुर्गों की जमकर आलोचना व निंदा करते हैं। क्या यह वांछनीय है? अब एक गुजारिश बुजुर्गों से भी कि अपनी रुचि और अपने ध्यान को परिष्कृत करें। सत्संग या कथा-प्रवचनों की हमारे यहां व्यवस्था इसलिए ही तो है। अब तो टीवी पर भी धार्मिक चैनल्स की भरमार है। बहुत अच्छी व महत्व की बातें कहीं जाती हैं। सुबह-सवेरे का भ्रमण व ध्यान तथा योग भी तो आजकल अच्छे और पवित्र माध्यम हैं। समाचार पत्र हैं व न्यूज चैनल हैं-कहीं तो मन लगाना पड़ेगा। अपने स्वं से उठेगें नहीं व बाहर नहीं आएंगे तो कोई न कोई अप्रिय व्यवहार अवश्य ही आपसे हो जाएगा। परंतु जो प्रतिक्रिया उस अधेड़ बुजुर्ग ने की वह असामान्य है। परिवार का सहयोग और अपनी मनोसुचेतना बहुत जरूरी है।

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