-ओमप्रकाश मेहता
विश्लेषक
भारतीय जनता पार्टी इन दिनों उस ब्रह्मास्त्र की खोज में है, जिसके द्वारा वह उत्तरप्रदेश का चुनावी रण फतह कर सके, इसके लिए वह अब तक कई जाति व वर्ग लुभावने दाव खेल चुकी है, किंतु बिहार से चोट खाई भाजपा अभी भी उत्तरप्रदेश की राजनीति को लेकर संशय में है और वह कोई ऐसा ब्रह्मास्त्र खोजना चाहती है, जो प्रतिपक्षियों पर न सिर्फ भारी पडे, बल्कि उन्हें चुनाव के पहले ही पस्त कर दे और इसी उम्मीद में अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने एक पुराने ब्रह्मास्त्र की धूल झाड़कर उसे चमकाने का प्रयास किया है और वह है समान नागरिक संहिता। इस कॉमन सिविल कोड की पोथी अब विधि आयोग को सौंप कर मोदी ने इसे लागू करने का संदेश उत्तरप्रदेश के साथ पूरे भारत को दिया है।
वैसे इस संहिता का जन्म आज से करीब सवा सौ साल पहले 1884 में अंग्रेजों के राज में हुआ था, अंग्रेज शासकों ने इसे लागू करने का प्रयास भी किया था, किंतु उन्हें सफलता नहीं मिल पाई। भारत की आजादी के बाद जब डॉ. भीमराव आंबेडकर की अध्यक्षता में हमारे नए संविधान की रचना हुई, तब भी संविधान के अनुच्छेद-25 के तहत हिंदू पर्सनल लॉ के अंतर्गत हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध आदि धर्म आते हैं, जबकि मुस्लिम व ईसाई समुदाय का अपना-अपना पर्सनल लॉ है। संविधान के अनुच्छेद-44 के मुताबिक यूनिफार्म सिविल कोड लागू करना राज्यों का कर्तव्य माना गया है, लेकिन इसे अक्सर धर्म निरपेक्षता की बहस में पटरी से उतार दिया जाता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि हमारा संविधान हमारे देश की हर नागरिक को अपनी धार्मिक व सामाजिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है, किंतु साथ ही संविधान यह भी चाहता है कि पूरे भारत के नागरिकों को समानता का अधिकार भी दिया जाए। इस तरह यदि यह कहा जाए कि समान नागरिक संहिता की राह में धर्मनिरपेक्षता बाधक बनी तो कतई गलत नहीं होगा, क्योंकि धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत यदि देश के हर धर्म-संप्रदाय के नागरिक को अपने सामाजिक रीति-रिवाज बनाने और उनका पालन करने की छूट देता है तो समान नागरिक संहिता पूरे देश के नागरिकों को एक समान सामाजिक व धार्मिक रीति-रिवाजों का संदेश देती है।
चूंकि आजादी के बाद के अब तक के 67 सालों में हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत ही हावी रहा और हर धर्म व जाति के समाज ने अपने-अपने रीति-रिवाज बना लिए और उनका पांच दशक से परिपालन भी हो रहा है, तो ऐसे में अब समान नागरिक संहिता लागू करना काफी मुश्किलभरा कदम होगा। इसे यदि कानून का भय दिखाकर लागू करने का प्रयास किया गया तो वह सत्तारूढ़ दल के लिए भारी भी पड़ सकता है, क्योंकि आज कोई भी धर्म व उसके अनुयायी यह कतई नहीं चाहते कि उनके बाप-दादाओं के जमाने से चले आ रहे सामाजिक व धार्मिक रीति-रिवाजों को बदला जाए। जब इन रीति-रिवाजों के परिपालन हेतु विभिन्न धर्म-संप्रदायों के ‘पर्सनल लॉ’ बने हुए हैं तो फिर ऐसे समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दे को कानूनी जामा पहनाना सरकार व सत्तारूढ़ दल के लिए भारी पड़ सकता है। खासकर उस समय जब सत्तारूढ़ दल भाजपा ने पूरे देश में ‘अश्वमेधी यज्ञ’ जारी कर रखा हो और पूरे देश पर एकछत्र राज करने का सपना संजो रखा हो? चूंकि अगले वर्ष उत्तरप्रदेश सहित पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव हों, ऐसे मौके पर तो भाजपा और प्रधानमंत्री का यह कदम ‘कष्टसाध्य’ सिद्ध हो सकता है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि आजादी के बाद से अब तक देश में कांग्रेस व भाजपा संयुक्त गठबंधनों की सरकारें काबिज हुई, किंतु अब तक किसी ने भी समान नागरिक संहिता के ‘सांप के पिटारे’ को खोलने का प्रयास नहीं किया, किंतु अब मोदी की सरकार इस खतरे को मोल लेने को उद्धत हुई है। अब इसमें तो कोई दो राय नहीं कि देश का विधि आयोग पड़ताल कर वहीं रिपोर्ट देगा, जो सरकार चाहेगी। यदि आयोग ने इस संहिता को कानून बनाकर लागू करने की सिफारिश कर दी तो सरकार के सामने इसे लागू करने के अलावा और कोई विकल्प शेष नहीं बचेगा और यदि इसे कानूनन लागू किया गया तो देश की कानून व्यवस्था व सरकार के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह भी लग सकता है।
समान नागरिक संहिता के मामले में मोदी इसलिए भी भाग्यशाली हैं कि इसकी पहल स्वयं मोदी ने नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने की। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सरकार से कुछ सवाल पूछे और मोदी ने इस संहिता पर अपनी राय देने हेतु विधि आयोग से कह दिया। इससे मोदी को अपने आप मांगी हुई मुराद अपनी झोली में नजर आने लगी। एक ओर उत्तरप्रदेश चुनाव के पहले भाजपा को अपने घोषणा-पत्र का यह मुद्दा फलीभूत होता नजर आने लगा है, वहीं संघ भी इस माहौल से खुश नजर आ रहा है।
वैसे यदि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका को सूक्ष्म दृष्टिकोण से देखा जाए तो वह भी कोई तोहमत अपने सिर लेना नहीं चाहता इसीलिए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर ने साफ कह दिया कि इसे लागू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट सरकार या विधिवेत्ताओं पर दबाव नहीं डाल सकती। न्यायालय ने सरकार से अवश्य इस मामले में अपना रुख स्पष्ट करने को कहा है और उसी का परिणाम है कि मोदी ने अति प्रसन्न हो विधि आयोग को यह मसला विचारार्थ सौंप दिया। अब विधि आयोग पर दबाव डाला जाएगा कि वह यथाशीघ्र अपनी रिपोर्ट दे दे जिससे कि यू.पी. चुनाव के समय इसका राजनीतिक लाभ उठाया जा सके, जबकि वास्तविकता यह है कि मुस्लिम व ईसाई दोनों ही संप्रदाय के लोग मोदी के इस प्रयास से नाराज हो गए हैं और वे अभी से चुनाव के समय ‘देख लेने’ की धमकी भी देने लगे हैं।
इस तरह कुल मिलाकर मोदी और भाजपा छींके पर रखे जिस हांडी में ‘अमृत’ मान कर चल रहे हैं, वह वास्तव में उनके लिए विष भी साबित हो सकती है और समान नागरिक संहिता की सोच विनाश काले विपरीत बुद्धि सिद्ध हो सकता है। अर्थात जिसे ब्रह्मास्त्र माना जा रहा है, वह आत्मघाती बुमेरिंग भी हो सकता है।