27 Apr 2024, 04:33:09 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-वीना नागपाल

एक  प्रदर्शनी में जाना हुआ। प्रदर्शनी के प्रवेश ही ‘विजिटर बुक’ रखी होती है, जिसमें उस प्रदर्शनी को देखने के बाद कैसा अनुभव हुआ और क्या-क्या विचार आए उन्हें लिखकर दर्ज करना होता है। 

ऐसी ही एक ‘विजिटर बुक’ उस प्रदर्शनी के प्रवेश में भी रखी हुई थी। प्रदर्शनी के अवलोकन के बाद पूरी तन्मयता से मैं भी अपने विचार, अपना मत लिखने में व्यस्त थी। अचानक एक छोटी सी आवाज ने चौंका दिया। देखा तो एक लगभग 6 या 7 वर्ष की बच्ची पास में ही खड़ी थी और कह रही थी- कितना गंदा लिख रही हो। मैंने जान- बूझकर उसकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया जिससे कि वह आगे बोलने में सजग न हो जाए। फिर उसने कहा-कितनी गंदी राइटिंग है। तुम्हें पनिशमेंट मिलेगी। तुम्हें स्पेलिंग भी नहीं आती। तुम्हें कॉर्नर में खड़ा कर दूंगी। इतना कहकर वह तो भाग गई पर, उसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। अब! मेरी समझ में आया कि उसकी या तो टीचर या उसकी मम्मी उससे यह सब बातें कहती होंगी। उसे बार-बार राइटिंग के लिए टोका जाता होगा। स्पेलिंग की बात की जाती होगी और उससे भी बढ़कर उसे पनिशमेंट देने की बात भी की जाती होगी। हो सकता है कि उसे कॉर्नर में खड़ा करने के लिए भी धमकाया जाता हो।

सारी बात आईने की तरह साफ थी। इस उम्र में भी उस पर पढ़ाई, लिखाई का इतना बोझ था। उसे कितना डराया व धमकाया जाता होगा कि वह अच्छी राइटिंग लिखे। उसके नन्हे हाथों में पेंसिल पकड़ते ही एक भय हमेशा समाया रहता होगा कि यदि उसने अच्छी राइटिंग नहीं लिखी या ठीक स्पेलिंग नहीं लिखी तो उसे पनिशमेंट मिलेगी। कितना गहरा प्रभाव या जिसे कह सकते हैं कि कुप्रभाव उसके मन-मस्तिष्क पर था कि वह एक अनजान व्यक्ति से वही सब बोले जा रही थी जिसे उसने अपनी टीचर या मम्मी से बार-बार सुना होगा। उसके बाल मन पर यह कैसी छाप पड़ गई थी कि वह अन्य किसी को उसी स्वर से धमका रही थी। वह उस प्रभाव को दिन-रात जीती होगी व उससे मन ही मन भयग्रस्त रहती होगी अथवा आक्रोशित रहती होगी तभी तो उसका दबा आक्रोश किसी और पर निकला।

दरअसल शिक्षा के विषय को हमारी व्यवस्था ने दंड व भय से जोड़कर रखा हुआ है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक केवल परीक्षा परिणामों की सफलता ही व्यक्ति के योग्य होने की कसौटी हो गई है। बचपन शिक्षा पाने के लिए बल्कि उसके पाने के प्रयास से उपजे आतंक से जुड़ गया है। बचपन एक बड़े से बैग का बोझ लादे अच्छी राइटिंग, गुड स्पेलिंग्स और लेसंस कंठस्थ करने में गुजर जाता है। इसमें बच्चे की बुद्धि तथा मस्तिष्क ने क्या अर्जित किया, आदि कुछ भी शामिल नहीं होता। उनके मस्तिष्क में इस सारी कुंठाग्रस्त करने की कवायद में इतनी जगह ही नहीं बचती कि वह संस्कार सीख पाएं या वह स्वयं भी कुछ और अर्जित कर पाएं। उस बच्ची की बातें दो स्तर पर विचलित करने वाली थीं। एक तो वह किसी अनजान और अपने से बड़े किसी व्यक्ति से इस लहजे में बात कर रही थी और दूसरा यह स्पष्ट था कि वह अपने भीतर भय और आक्रोश का इतना बड़ा कोष लिए बैठी थी कि वह किसी अजनबी पर निकालने में उसे कोई हिचकिचाहट नहीं हुई। क्या यह हमारी आंखें खोलने के लिए काफी नहीं है। इस तरह के दबाव व भय में बढ़ने वाले बच्चे क्या भविष्य में हताशा से भरकर आत्महत्या नहीं कर लेते? जरा सोचें।

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