-वीना नागपाल
बंगाल में बंगाली समाज में यह रीति और परंपरा है कि प्रत्येक महिला को चाहे चह किसी भी उम्र की क्यों न ही ‘मां’ संबोधन से पुकारा जाता रहा है। छोटी बच्ची को भी चाहे उसका नाम कुछ भी हो, पर उसे मां ही कहा जाता था। बंगला साहित्य जो उस समय लिखा गया उसमें किसी भी बच्ची व युवती तथा महिला के लिए ‘मां’ का संबोधन कई बार आया है। अब दक्षिण भारतीय समाज की बात करें, वहां महिलाओं के लिए ‘अम्मा’ संबोधन दिया जाता है। यहां भी बच्ची से लेकर बड़ी उम्र की महिला तक को ‘अम्मा’ कहकर ही पुकारा जाता है। गुजराती समाज में भी महिलाओं को बड़े आदर व सम्मान का दर्जा दिया गया है। वह महिला चाहे परिचित हो या अपरिचित ‘बेन’ (बहन) ही कहलाती है। उत्तर प्रदेश में ‘जिज्जी’ (दीदी) कहकर बुलाने की रीति रही। यहां तक कि बड़ी उम्र की दादी या मां को भी ‘जिज्जी’ कहा जाता है और हमउम्र युवती तो ‘जिज्जी’ होती ही थी। छोटी बच्ची को मुन्नी या गुड़िया को बहुत स्नेह भरा आत्मीय संबोधन दिया जाता रहा।
एक ऐसा समाज को उत्तर से दक्षिण और पूरब से लेकर बच्चियों को अति सम्मानीय संबोधन देकर उनकी प्रतिष्ठा व सम्मान की पूरी-पूरी व्यवस्था की स्थापना को सुनिश्चित करता रहा, वहीं आज उनके इसी सम्मान को तार-तार कर रहा है। पिछले दिनों लगातार (लगभग रोज ही) बच्चियों के साथ की जा रही दरिंदगी और अशिष्टता के समाचार आते रहे। किसी भी बच्ची को असुरक्षित पाकर उसके साथ दुर्व्यवहार करते हुए झपट पड़ना एक सम्य समाज की निशानी तो नहीं है। वह भी ऐसा समाज जो सदियों तक अनेक आदरणीय व पवित्रता से भरे संबोधनों से उन्हें पुकारता रहा। यह एक ऐसा समाज है जिसके मनीषियों ने न जाने कब यह व्यवस्था बनाई होगी महिलाएं ऐसे संबोधनों से पुकारी जाएं जिनमें उनकी प्रतिष्ठा और विशेष आदर का स्थान निर्मित होता हो। उनका यहां दृढ़ विश्वास था कि जिन संबोधनों से महिलाओं का आदर स्थापित होता हो उनका उच्चारण करने वाले तथा उनको वाणी से पुकारने वालों के मन में उनके साथ कभी दुष्टता तथा अशिष्टता करने का विचार आ ही नहीं सकता। यह संबोधन केवल शब्द ही नहीं थे बल्कि उनमें बहुत गहरा चिंतन छिपा हुआ था, जिसके कारण समाज में एक स्वस्थ और सभ्य माहौल बन सकता है। पता नहीं समय के किस मोड़ पर इसी के साथ ही असभ्य दुर्व्यवहार व दरिदंगी का एक अराजक माहौल बन गया। जिस समाज में लड़कियां केवल संबोधनों के कारण ही सुरक्षित हैं उस समाज ने उन्हें भुलाकर महिलाओं के प्रति अपना सारा नजरियां ही बदल डाला है।
क्या यह दु:ख और अफसोस की बात नहीं है कि हम अपनी बच्चियों को गुड व बैड टच के बारे में बताएं। उस समाज की बच्चियां अपने घर आने वाले भैया, अंकल व काका से बचकर रहें कि कहीं वह इसकी आड़ लेकर बच्चियों को दु:ख न पहुंचा दें। देवी के रूप में ही ‘मां’, अम्मा तथा बेन व जिज्जी के संबोधनों से पुकारी जाती रही हैं। पर, आज उन बच्चियोंं का आदर व सम्मान उनकी कोमल व मासूम आयु में नोचा-खसोटा जा रहा है। बच्चियों के साथ होने वाला दुर्व्यवहार हमारे समाज के लिए बहुत शर्मनाक है, क्योंकि हमने बहुत पहले से ही उनका वाजिब सम्मान पवित्र संबोधनों से तय कर दिया था। आज उन्हीं संबोधनों को दोहराने की जरूरत है। यदि वाणी से उच्चारित नहीं कर सकते तो मन ही मन उन्हें स्थापित कर लें।