-वीना नागपाल
ऐसा कहा जाए कि फिल्म ‘वेटिंग’ एक बात नहीं, बल्कि बहुत सारी बातें कहती और बताती है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यहां हम फिल्म की समीक्षा नहीं कर रहे और न ही फिल्म के कथानक की प्रस्तुति को लेकर कोई बात कर रहे हैं। यहां तक कि नसीरुद्दीन शाह और कल्कि कोचलीन के अभिनय को लेकर केवल सर्वोतम कहेंगे और उसके विस्तार में भी नहीं जाएंगे।
यहां केवल उसके उस पक्ष की बात होगी जिसे आजकल हम सोशल नेटवर्किंग के युग में भुला चुके हैं। उस व्यक्ति की बात करेंगे जो सोशल साइट्स पर व्यस्त रहता है पर, जब उस पर कोई आपात स्थिति आती है तो उसे चेटिंग, ट्विटर पर एक्टिव होने तथा फेसबुक पर बातें करने वालों के साथ की नहीं बल्कि अपने पास एक ऐसे व्यक्ति की जरूरत पड़ती है जो सशरीर उसके सामने उपस्थित हो और मानवीयता से भरी भावनाओं और संवेदनाओं के शब्द सुना सके। कुछ अपनी कहे और कुछ उसकी सुने। अब यहां इस फिल्म की कहानी का संदर्भ देना ही पडेÞगा। नसीरुद्दीन शाह और कल्कि कोचलीन एक अति संवेदनशील स्थिति से घिरे हुए हैं। नसीरुद्दीन शाह की पत्नी कोमा में है, जिसके वापस कोमा से बाहर आने का शायद कोई चांस ही नहीं है। डाक्टर तो यही कहते हैं। दूसरी ओर कल्कि के पति एक दुर्घटना में घायल होकर कोमा जैसी स्थिति में हैं।
तारा (फिल्म में कल्कि कोचिन का नाम) इस बात को लेकर बहुत दुखी है कि फेसबुक और ट्विटर पर हजारों की संख्या में फॉलोअर्स होने के बावजूद वह इस अति दुख और कष्ट की स्थिति में बिलकुल अकेली है। उसे उसके पास एक व्यक्ति की निकटता व आत्मीयता की जरूरत है पर, वह तो वहां नहीं है। अपनी परेशानी वह किसी की उपस्थिति से बांटना चाहती है पर, यही तो उसे नहीं मिल पा रहा। नसीरुद्दीन शाह का साथ उसे ऐसी स्थिति में मिलता है और इन साथ-साथ बिताएं पलों के कारण ही वह अपने अवसाद और निराशा के पलों से दूर होता महसूस करती है।
यही है वह वास्तविक बात जिसे जाना और समझा जाना चाहिए। एक यंत्र के माध्यम से फिर चाहे व मोबाइल या लैपटॉप दुनिया भर से जुड़ने का दावा किया जाता है। ट्विटर के माध्यम से कई बातें की जाती हैं और लगता है कि कितने लोगों से निकटता हो गई है। फेसबुक पर आते ही तथाकथित मित्र या यंू कहें कि वार्तालाप स्थापित करने की कितनी विस्तृत और व्यापक दुनिया सामने खुल गई है। इन साइट्स पर व्यस्त रहने में कितना समय लग जाता है। इनके साथ जुड़ने के सिलसिले में कितना लगा रहना पड़ता है। अधिकांश तो गर्दन व सिर इसी में ही डूब कर झुके रहते हैं। नजरें मोबाइल या लैपटॉप के स्क्रीन से ही चिपकी रहती हैं। अपने आस-पास उपस्थित गौण हो जाती है। बल्कि कभी-कभी तो यहां तक कि भी हो जाता है कि यह पता तक नहीं चलता कि कोई पास में मौजूद भी है या नहीं। सोशल साइट्स की यह तिलिस्मी दुनिया बड़ी रोचक, आकर्षक व दिलचस्प लगती है। इसके बाहर किसी की मौजूदगी का अहसास तक नहीं होता।
क्या यह दुनिया वास्तविक है? क्या जिनसे चैटिंग होती है या फेसबुक से जो रिश्ते बनते हैं वह वास्तविक और आत्मीय होते हैं। दुख और पीड़ा की घड़ी में क्या उनका साथ मिल सकता है? क्या वह हमारे निकट उपस्थित होकर अपने स्पर्र्श का निकटता से अवसाद और दुख कम कर सकते हैं। हो यह रहा है कि सोशल साइट्स पर समीपता बनाने की निरतंर व्यस्तता के कारण सशरीर मित्र बनाने और संबंध स्थापित करने का सिलसिला समाप्त होता जा रहा है। जब दुख की घड़ी और सहारा पाने के लिए किसी व्यक्ति की उपस्थिति शिद्दत से चाहिए होती है व उसकी उपस्थिति की नजदीकी चाहिए होती है तो ऐसा कोई व्यक्ति दूर-दूर तक नजर नहीं आता। अच्छा और शुभ तो यही होगा कि फेसबुक पर चेहरों की तलाश करने से कुछ समय निकाल कर अपने आसपास के उन चेहरों को खोजें व उनके साथ आत्मीय संबंध बनाएं जो जरूरत पड़ने पर हमारे दुख-सुख में शामिल हों। जिंदगी जीने का तरीका फेसबुक व ट्विटर नहीं बल्कि जीवंत संबंधों पर निर्भर करता है।
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