26 Apr 2024, 05:52:45 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-वीना नागपाल

आज समाज में एक लहर उठी हुई है। यह लहर खाने-पीने को लेकर है। कहा जा रहा है कि किसी को भी यह हक नहीं बनता कि किसी के खाने-पीने को लेकर रोक-टोक की जाए। यह रोक-टोक यदि शासन की तरफ से की जाए तो और भी बुरी बात है। कोई क्या खाता है? कोई कितना पीता है इसमें हस्तक्षेप करना अधिकारों के विरुद्ध है। यदि ऐसा किया जाता है तो यह लोकतंत्र के मूल सिद्धान्त के भी विरुद्ध है।

क्या वास्तव में यह हस्तक्षेप अनुचित है? आए दिन समाचार-पत्रों और टीवी चैनल्स के न्यूज चैनल्स में दिखाया जाता है कि किस तरह देर रात तक कई रेस्त्रां व होटलों में देर रात तक शराब परोसी जाती है और नशे की मदहोश हालत में वहां जमा युवक व युवतियां कैसी रंगीनी में डूबे होते हैं। इसके बाद वहां से नशे में झूमते-लड़खड़ाते हुए यह बाहर निकलते हैं और अपनी गाड़ियां चढ़ा देते हैं। इनके किसी दोस्त का जन्मदिन हो या इनका स्वयं का जन्मदिन पर यह नशे में धुत होकर उसे मरण दिवस में बदल देते हैं। पता नहीं जन्मदिन मनाने या इसी तरह के और आनंददायी दिवस को मनाने का यह कौन सा माध्यम है, जिसमें यह स्वयं अपनी जान के दुश्मन हो बैठते हैं। आजकल हुक्का बार का नया फै शन चल पड़ा है। युवक व युवतियां इकट्ठे होकर तरह-तरह के फ्लेवर वाले हुक्के गुड़गुड़ाने के लिए जमा होकर इठलाते व इतराते हैं। क्या इनको इस तरह की मदहोशी की छूट दी जा सकती है? क्या इनकी नशपत्ती में डूबे व्यवहार से इन्हें स्वयं दुर्घटित होने अथवा दूसरों को मारने का खुला का खुला लाइसेंस दिया जा सकता है? जिंदगी को तबाह करने की बात पर शासन द्वारा हस्तक्षेप नहीं किए जाने की सोच रखना और इसकी मांग करना किसी भी ऐंगल से लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता। आजकल ‘मेरी मर्जी’ को लेकर एक खुला अभियान चल पड़ा है। समाज में किसी तरह के व्यवहार पर कोई भी रोक-टोक नहीं हो यह सब ‘मेरी मर्जी’ के अंतर्गत आता है। यदि किसी के खाने-पीने से केवल उसका ही नहीं बल्कि उससे जुडेÞ प्रत्येक व्यक्ति का भी नुकसान पहुुंचता है तो इसके लिए शासन द्वारा कानून बनाया ही जाना चाहिए। रोज-रोज इस तरह के नशे में डूबे रहने वाले समाज के लिए व उससे भी बढ़कर अपने परिवार के लिए बोझ बन जाते हैं। आश्चर्य तो इस बात पर है कि आधुनिकता की परिभाषा गढ़ने वाले तथाकथित नए धनाट्य (संभ्रात) तबका इस तरह के नशे करने और खुले आम शराब व हुक्के परोसे जाने का कोई  विरोध नहीं कर रहे। समाज में खाने-पीने की बात को लेकर ‘मेरी मर्जी’ के अंतर्गत आने वाली और की जाने वाली बातों को लेकर एक नकरात्मक प्रवृत्ति बनती जा रही है। एक ही सकरात्मक बात दिख रही है कि इसके विरोध में एक अभियान बहुत धीमे-धीमे जोर पकड़ रहा है जो नशे पर पूरी पाबंदी लगवाना चाहता है। उसे ऐसे लोकतंत्र में कोई विश्वास नहीं है जो खाने-पीने की उस छूट का समर्थन करता हो जिसमें न केवल आर्थिक हानि बल्कि स्वास्थ्य की भी हानि और जान जाने का खतरा मौजूद है। इसलिए नश बंदी का समर्थन कर ‘थोडेÞ सी पीने पर भी हंगामा बरपा’ देना होगा।

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