- आर.के. सिन्हा
- लेखक राज्यसभा सदस्य हैं।
अरुंधति राय उन बुद्ध्निजीवियों में शामिल हैं, जिनकी कलम देश को तोड़ने वाली शक्तियों के लिए ही चलती है। कभी वह छतीसगढ़ के दीन-हीन आदिवासियों का खून बहाने वाले माओवादियों के साथ खड़ी हो जाती हैं, तो कभी उन्हें कश्मीर के अलगाववादी नेताओं यासीन मलिक और इफ्तिखार गिलानी के समर्थन में लिखने में भी लज्जा नहीं आती। अरुंधति राय कश्मीर की आजादी की पैरोकार हैं। यानी वह संसद के उस प्रस्ताव को कागज का टुकड़ा मान रही हैं, जिसमें संकल्प लिया गया है कि भारत-पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) का अपने में विलय करेगा। इस प्रस्ताव को संसद ने सर्वसम्मति से ध्वनिमत से पारित किया था, 22 फरवरी 1994 को। इस प्रस्ताव से बेपरवाह अरुंधति राय कश्मीरी अलगावदियों की तरह कश्मीर की आजादी की पुरजोर वकालत करती हुई नजर आती हैं।
संसद के पीओके पर पारित उस प्रस्ताव का यहां पर खास तौर पर उल्लेख करना उचित है, क्योंकि संसद ने उपर्युक्त प्रस्ताव को ध्वनिमत से पारित करके पीओके पर भारत ने हक जताया था। प्रस्ताव में कहा गया था, जम्मू-कश्मीर भारत का अटूट अंग है। पाकिस्तान को उस भाग को छोड़ना ही होगा जिस पर उसने कब्जा जमाया हुआ है। उस प्रस्ताव का संक्षिप्त अंश कुछ इस तरह से है।
ये सदन पाकिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चल रहे आतंकियों के शिविरों को दी जा रही ट्रेनिंग पर गंभीर चिंता जताता है कि उसकी तरफ से आतंकियों को हथियारों और धन की सप्लाई के साथ-साथ प्रशिक्षित आतंकियों को घुसपैठ करने में मदद दी जा रही है। सदन भारत की जनता की ओर से संकल्प लेता है- (क) जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा। भारत के इस भाग को देश से अलग करने का हरसंभव तरीके से जवाब दिया जाएगा। (ख) भारत में इस बात की क्षमता और संकल्प है कि वह उन नापाक इरादों का मुंहतोड़ जवाब दे जो देश की एकता, प्रभुसत्ता और क्षेत्रीय अंखडता के खिलाफ हो; और मांग करता है- (ग) पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर के उन इलाकों को खाली करें, जिसे उसने कब्जाया हुआ है। (घ) भारत के आतंरिक मामलों में किसी भी हस्तक्षेप का कठोर जवाब दिया जाएगा।
देश के इतने अहम संकल्प के बावजूद अरुंधति राय और कुछ और कथित लेखक और मानवाधिकारवादी एक अलग लाइन लेते हैं कश्मीर के मसले पर। ये निश्चित रूप से गंभीर मामला है। खैर, अब तो अरुंधति राय भारतीय सेना पर हमला बोल रही हैं। कह रही हैं कि 1947 से भारतीय सेना का देश की जनता के खिलाफ ही इस्तेमाल हो रहा है। इसी तरह का बयान जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार भी दे चुके हैं। उन्होंने कहा था कि भारतीय सेना के जवान कश्मीर में रेप करने में सबसे आगे हैं, यानी अपनी सियासत चमकाने के लिए सेना को भी नहीं छोड़ा जा रहा है। बुकर पुरस्कार मिलने के बाद अरुंधति राय ने सोच लिया है कि मानो उन्हें देश के खिलाफ बोलने का लाइसेंस-सा मिल गया है।
अरुधंति राय ने बिल्कुल हाल ही में एक तमिल पुस्तक के विमोचन पर कहा कि भारतीय सेना कश्मीर, नगालैंड, मिजोरम वगैरह में अपने लोगों पर अत्याचार करती रही है। बेशक, अरुंधति राय का नजरिया पूरी तरह से न सिर्फ सरकार विरोधी है, बल्कि भारत विरोधी भी है। मैं मानता हूं कि सरकार की नीतियों का विरोध देश के हरेक नागरिक का अधिकार है। इसमें कोई बुराई नहीं है कि आप सरकार की किसी नीति से सहमत या असहमत हों, लेकिन माओवादियों के खेमे में जाकर बैठी इस मोहतरमा को बेनकाब किया जाना चाहिए। सबसे दुखद और चिंताजनक पक्ष ये है कि अरुंधति राय सरीखे देश-विरोधी तत्वों के कुछ चाहने वाले इनके लेखों-बयानों के लिंक्स को सोशल मीडिया पर शेयर करके अपने कर्तव्य का निर्वाह भी करते हैं। इन्हें ये सब करने में बड़ा आनंद आता है। इनकी बस एक ही समस्या है कि एक ऐसा आदमी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा है जिसका नाम नरेंद्र मोदी है।
अरुंधति राय उन कथित लेखकों के समूह का नेतृत्व करती हैं, जिन्हें भारत विरोध प्रिय है। ये लेखकों की जमात सुविधाभोगी है। ये वही लेखक हैं, जो दादरी कांड के बाद अभिव्यक्ति की आजादी का कथित तौर पर गला घोंटे जाने के बाद अपने साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटा रहे थे।
भारतीय सेना पर कठोर टिप्पणी करने वाली अरुंधति राय से पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने क्यों कभी सेना के कश्मीर से लेकर चेन्नई की बाढ़ राहत कार्यों को अंजाम देने पर लिखना पसंद नहीं किया? पिछले साल जम्मू-कश्मीर में आई बाढ़ की विपदा से निपटने के लिए सेना और वायुसेना के जवानों ने दिन-रात एक कर दिया था। कभी घाटी में लोगों का विरोध झेलने वाली सेना लोगों के लिए देवदूत बन गई थी। बाढ़ से आई तबाही में सेना ने जिस तरह से जान जोखिम में डालकर लोगों को बचाने का अभियान छेड़ा, उससे लोग सेना के मुरीद हो गए।
सेना के प्रति लोगों के दिल में आदर और सम्मान बढ़ा। इसके अलावा उत्तराखंड में साल 2013 में आई बाढ़ हो या फिर देश के किसी अन्य भाग में आई दैविक आपदा। सेना हर जगह मौजूद रही जनता को राहत पहुंचाने के लिए। पर, अरुंधति राय को ये सब नहीं दिखा या वह देखना नहीं चाहती। अरुंधति राय की यासीन मलिक के साथ हाथ में हाथ डाले फोटो देखिए गूगल सर्च करके। यासीन मलिक इस्लामाबाद में भारतीय हाई कमीशन के बाहर धरना देते हैं, मुंबई हमलों के मास्टरमाइंड हाफिज सईद के साथ बैठकर। क्या अरुंधति राय भूल गई है कि सन 2008 में पाकिस्तान से आए आतंकियों ने मुंबई में करीब 200 लोगों का खून बहाया था?
पिछले साल दादरी कांड को लेकर जिस तरह से कथित लेखकों ने अपने सम्मान वापस करने की होड़ मचा रखी थी, उसके बाद देश की जनता अरुंधति राय सरीखे लेखकों का असली चेहरा देख लिया है। जाहिर है, अब इनका असली चेहरा देखकर जनता इनसे दूर रहने लगी है।