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उप्र में स्मृति के लिए बिछ रही चुनावी बिसात

By Dabangdunia News Service | Publish Date: Jun 1 2016 10:40AM | Updated Date: Jun 1 2016 10:40AM
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-विष्णुगुप्त
विश्लेषक


उत्तरप्रदेश में भाजपा स्मृति ईरानी पर दांव लगा रही है। आगामी विधानसभा चुनाव में स्मृति ईरानी को मुख्य चेहरा बनाने की रणनीतियां बन रही हैं। स्मृति ईरानी के लिए धीरे-धीरे व संयमित ढंग से चुनावी बिसात बिछाई जा रही है। उनकी राजनीतिक छवि को हवा दी जा रही है। खुद स्मृति ईरानी ने लोकसभा चुनाव हारने के बावजूद भी अमेठी से नाता नहीं तोड़ा। जब-जब समय मिला तब-तब अमेठी गई, जनता से मिली और अमेठी के पिछड़ेपन के लिए सोनिया गांधी-राहुल गांधी को निशाना बनाया। सबसे बड़ी बात यह है कि स्मृति ईरानी ने अमेठी के बाहर पूरे उत्तरप्रदेश पर ध्यान देना शुरू कर दिया है। उत्तरप्रदेश में जहां पर जातिवाद की भाषा बोली जाती रही है, जातिवाद को राजनीतिक केंद्र बना दिया गया है, राजनीतिक जीत के लिए जातिवाद पर दांव लगाना राजनीतिक पार्टियों के लिए धर्म बन गया है, वहां पर भाजपा की जातिविहीन राजनीति की चुनावी रणनीति कितनी सफल होगी, यह एक बड़ा प्रश्न है।

मुलायम सिंह यादव जहां पिछड़ी जातियों का राजनीतिक चेहरा हैं, वहीं मायावती दलित जातियों का राजनीतिक चेहरा बनी हुई हैं। पिछले कई विधानसभा चुनावों में मुलायम और मायावती के बीच ही मुख्य मुकाबला होता आया है। भाजपा के लिए उत्तरप्रदेश कितना महत्व रखता है यह भी जगजाहिर है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वाराणसी से सांसद हैं और पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को उत्तरप्रदेश में अतुलनीय सफलता मिली थी। 2019 के लोकसभा चुनावों में जीत के लिए नरेंद्र मोदी को उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों में जीत जरूरी है। इसीलिए चाकचौबंद ढंग से नरेंद्र मोदी उत्तरप्रदेश में अपना दांव खेल रहे हैं। इतना तो सही है कि उत्तरप्रदेश में जो पहले गुटबाजी होती थी, जातिवादी खेमों में बंट कर भाजपा को नुकसान पहुंचाने की जो राजनीति होती थी, उस पर रोक लगी है। ऐसा इसलिए संभव हुआ है कि नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह के कार्यकाल की तुलना में नरेंद्र मोदी-अमित शाह के समय में अनुशासन की डोर मजबूत हुई है। भाजपा आज पूरी तरह से नरेंद्र मोदी की लोक छवि के नीचे खड़ी है?

स्मृति ईरानी क्या उत्तरप्रदेश में कमल खिला सकेंगी? क्या स्मृति ईरानी वंशवादी राजनीति की जगह जातिविहीन राजनीति की स्थापना करने में सफल होगी? क्या वंशवादी राजनीति को जमींदोज करने के लिए स्मृति ईरानी जनता को ललकार सकेगी? क्या स्मृति ईरानी उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह यादव और मायावती के तिलस्म को तोड़ पाएगी? स्मृति ईरानी का जातिविहीन चेहरा क्या उत्तरप्रदेश की जनता स्वीकार करेगी? स्मृति ईरानी पर बाहरी होने का ठप्पा तो नहीं लगेगा? अगर बाहरी होने की हवा बहेगी तो क्या भाजपा को नुकसान नहीं होगा? स्मृति ईरानी क्या राममंदिर के प्रश्न को भी अपनी चुनावी रणनीति में जगह देगी? अगर स्मृति ईरानी अपनी चुनावी रणनीति मे राममंदिर के प्रश्न को जगह नहीं देगी तो फिर हिंदुत्ववादी नाराज नहीं होंगे? इनकी नाराजगी का प्रबंधन वह कैसे करेंगी? जातिवादी और क्षेत्रीय संतुलन को कैसे साधेंगी स्मृति ईरानी? क्या सिर्फ नरेंद्र मोदी के सहारे ही स्मृति ईरानी कमल खिला पाएगी? स्मृति ईरानी और भाजपा के पक्ष में सुविधाजनक स्थिति यह है कि बिहार में लालू और नीतीश की तरह मुलायम और मायावती एक नहीं हो सकते। मुलायम और मायावती एक-दूसरे के खिलाफ ताल ठोंकते रहेंगे। अब यहां यह सवाल उठता है कि नरेंद्र मोदी स्मृति ईरानी पर ही दांव खेलने के लिए मजबूर क्यों हो रहे हंै? स्मृति ईरानी का ट्रम्प कार्ड खेलने के पीछे उनका असली राजनीतिक मकसद क्या है? क्या स्मृति ईरानी को आगामी उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों में मुख्य चेहरा बनाने के पीछे जातिवादी तिलिस्म को तोड़ने की रणनीति है? नरेंद्र मोदी ने बिहार की पराजय से बहुत कुछ सीखा है और अपनी रणनीतियां भी बदली हंै। नरेंद्र मोदी ने बिहार में पराजय के बाद यह महसूस किया कि जातिवादी राजनीति पर जातिवादी परिधि में रहकर जीत दर्ज नहीं की जा सकती है, जातिवादी राजनीति के तिलिस्म को तोड़ने के लिए जातिविहीन राजनीति पर दांव लगाना ही विजय की गांरटी हो सकती है। उत्तरप्रदेश में भाजपा के अंदर चेहरों की कमी नहीं थी, एक पर एक चेहरे थे। राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र, लक्ष्मीकांत वाजपेयी, दिनेश शर्मा, विनय कटियार और उमा भारती जैसे कद्दावर नेता भाजपा के पास हैं। एक समय यह प्रचारित किया गया था कि उमा भारती उत्तरप्रदेश में भाजपा का चेहरा होगी और मुख्यमंत्री की प्रत्याशी होंगी। इसी रणनीति की तहत उमा भारती को मध्यप्रदेश से उत्तर प्रदेश लाया गया था और लोकसभा का चुनाव लड़ाया गया था।

सबसे बड़ी बात यह है कि सोनिया खानदान पर ईरानी हमेशा हमलावर रही है। सिर्फ पंद्रह दिनों के प्रचार में ही स्मृति ने राहुल गांधी को परेशानी में डाल दिया था। अगर पहले से स्मृति ईरानी को अमेठी में लगाया गया होता तो शायद राहुल गांधी की पराजय सुनिश्चित भी हो सकती थी। इतना तो सही है कि चुनाव प्रचार के दौरान स्मृति ईरानी अपने शब्द-बाणों से मुलायम और मायावती के साथ ही साथ मां-बेटे यानी सोनिया गांधी-राहुल गांधी की अच्छी खबर ले सकती है। उत्तर प्रदेश में स्मृति ईरान पर दांव लगाना सफलता की गांरटी हो सकती है। अगर भाजपा के अंदर भितरघात नहीं हुआ, उत्तरप्रदेश के भाजपा के नेताओं के अहंकार व अति महत्वांकाक्षा पर रोक लगी और टिकट बंटवारे में क्षेत्रीय और जातीय समीकरण को साधा गया तो फिर स्मृति ईरानी उत्तरप्रदेश में कमल खिला सकती हैं अन्यथा वह किरण बेदी बनकर रह जाएंगी।
 

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