26 Apr 2024, 21:18:53 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-आशीष वशिष्ठ
-विश्लेषक


दूध-दही के लिए पहचान रखने वाले हरियाणा में दोबारा जाट आरक्षण आंदोलन की चिंगारी सुलगने लगी है। देशवासी और खासकर हरियाणा के बांशिदे अभी पिछले आंदोलन से हुए नुकसान और घावों का भूल नहीं पाए हैं। ऐसे में आगामी 5 जून से दोबारा जाट आंदोलन की सुगबुगाहट ने प्रदेशवासियों के माथे पर चिंता की गहरी लकीरें खिंच गई हैं। वास्तव में जाटों का आंदोलन कई सालों से चलता आ रहा है पर अभी तक सरकार इसका कोई ठोस निष्कर्ष नहीं निकल पाई है। इससे पहले कांग्रेस सरकार के समय काफी धन-जन की हानि हुई थी, जिससे चलते राज्य को 500 करोड़ रुपए से ज्यादा का नुकसान उठाना पड़ा था। बीती फरवरी को हुए विकराल व हिंसक आंदोलन में राज्य सरकार को 30 हजार करोड़ का नुकसान हुआ था, जिसका खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ा।

जाट आंदोलनकारियों की उग्रता के चलते कई रेलवे स्टेशनों, शॉपिंग मॉलों, व्यावसायिक केंद्रों, सरकारी प्रतिष्ठानों, बैंकों, स्कूलों और बसों को आग के हवाले कर दिया। जिसके चलते बहुत जनहानि हुई है। आंदोलन के दौरान 30 लोगों के मरने की पुष्टि सरकारी अमले ने की। जान-माल के भारी नुकसान को देखते हुए कहा जा सकता है कि अपनी मांगों को पूरा करवाने के लिए इतना उग्र और हिंसक हो जाना किसी भी संवैधानिक दृष्टिकोण से उचित नहीं है। इस आंदोलन ने राज्य सरकार की प्रशासनिक व्यवस्था की पोल खोल दी है। भीड़ के आगे पुलिस मूकदर्शक बनी खड़ी रही और इस आंदोलन के दौरान सरकार के द्वारा कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया, जिससे कि आंदोलनकारियों को रोक जा सके। आंदोलन का मतलब यह नहीं कि आप इतने उग्र और क्रूर हो जाएं कि उसका खामियाजा जनता को भुगतना पड़े।

सुप्रीम कोर्ट सहित विभिन्न तार्किक लोगों ने कहा भी है कि एक बार कोई परिवार आरक्षण व्यवस्था से लाभान्वित हो जाए तो उसे आरक्षण त्याग देना चाहिए। यह नैसर्गिक न्याय की मांग है। इसके बावजूद आरक्षण प्राप्त नवधनाढ्य वर्ग इस प्रलोभन को छोड़ने को तैयार नहीं। इसका सीधा-सा अर्थ यह हुआ कि आरक्षण की सुविधा-प्राप्त कथित पिछड़े वर्ग को भी यदि अपने ही वर्ग के अपेक्षाकृत गरीब और पिछड़े वर्ग की परवाह नहीं है तो वे संवर्णों से क्या उम्मीद करें? जिस तरह से आर्थिक रूप से सक्षम जातियां एक के बाद एक आरक्षण की मांग को लेकर हिंसक हो उठे हैं, क्या यह जायज है? जिन राज्यों ने पिछड़े वर्ग के कोटे में नए जाति समूहों को आरक्षण की घोषणा की, वह न्याय की कसौटी पर खरी नहीं उतरी। न्यायालय ने राज्य सरकारों के आदेश निरस्त कर दिए हैं। ऐसे में सवाल यह भी है कि पटेल, जाट, कापू व मराठा समुदाय को आरक्षण की जरूरत क्यों है? हरियाणा में जाट समुदाय न केवल राजनैतिक दृष्टि से बल्कि आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक नजरिए से भी उच्च धनी वर्ग में है, लेकिन देश के राजनैतिक दलों ने आरक्षण को वोट बटोरने का हथियार बना डाला।

संविधान के अनुरूप काम करते हुए इन अदालतों ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि किसी भी सूरत में 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण को मंजूरी नहीं दी जा सकती। इसके बावजूद कहीं गुर्जर, कहीं जाट तो कहीं अन्य जातियों के लोग आरक्षण के लिए आंदोलन पर तुले हैं। सच्चाई यह है कि जिन वर्गों के लिए पिछले 65 सालों से आरक्षण लागू है उन वर्गों को भी आज तक इसका न्यायोचित लाभ नहीं मिल पाया है। वहां पिछड़ों के बीच भी सम्पन्न और आभिजात्य वर्ग पनप चुका है। हैरानी की बात यह भी है कि बदले संदर्भों में आरक्षण यूं भी अर्थहीन हो चला है। सरकारी महकमों में नौकरियां लगातार घट रही हैं। अब राजनीतिज्ञों ने नया दांव खेलना शुरू किया है कि निजी क्षेत्र में भी आरक्षण लागू किया जाए। जब तक महिलाओं या आदिवासी, धर्म, शहरी और ग्रामीण या जाति या आर्थिक आधार पर आरक्षण चलता रहेगा तब तक अन्याय और भेदभाव की समस्या बनी रहेगी। अब आरक्षण देश के आम आदमी की मांग न रहकर मुट्ठीभर राजनीतिज्ञों की मांग रह गई है, जो शासन में या विपक्ष में रहने के बावजूद जनता के दिलों में जगह नहीं बना सके, उनके लिए कुछ अच्छा कर नहीं पाए, इसलिए वे कभी आरक्षण तो कभी मुफ्तखोरी के नारों पर चुनाव जीतना चाहते हैं। यह बात तो मुसलमानों, आदिवासियों व तमाम पिछड़े वर्गों से अधिक और कौन जानेगा कि कांग्रेस पार्टी ने आजादी के बाद के इन 70 वर्षों में उन्हें केवल नारे, वादे और झांसे ही दिए हैं। इन तमाम वर्गों की असलियत पूरे देश के सामने है। इतने बड़े वर्गों के लिए 65 सालों तक आरक्षण लागू रहे और इसके बावजूद उन वर्गों के 80 प्रतिशत लोग वैसी ही बदहाली में जी रहे हों तो आरक्षण के औचित्य पर सवाल लगना लाजिमी है। किसी आंदोलन कहे जाने वाले अभियान का स्वरूप अगर यह हो कि राज्य में 30 हजार करोड़ रुपए तक के नुकसान होने से लेकर सामूहिक बलात्कार के अनुमान और आरोप हों तो यह समूचे देश के लिए शर्म और चिंता की बात है। ये जातियां सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षिक रूप से सबल है, फिर भी आरक्षण की मांग उठाकर सरकारों पर दबाव बनाने की राजनीति कर रही है। इस तरह आरक्षण का मुद्दा जब-जब आंदोलन में तब्दील हो जाता है। इसकी नए सिरे से समीक्षा की जरूरत नहीं समझी जाती।

आरक्षण की व्यवस्था समाज के कमजोर और हाशिए के बाहर रह गए वर्गों के  लिए की गई थी। सत्ता और तंत्र में जिन सामाजिक वर्गों को भागीदारी लगभग नहीं के बराबर थी, उन्हें मुख्यधारा की दौड़ में लाने के मकसद से यह विशेष व्यवस्था की गई थी, लेकिन सच यह है कि आरक्षण की व्यवस्था का यह यथार्थ व्यापक जनता को समझा पाने में सरकार अब तक नाकाम रही है। हिंसक बनकर अपनी बात को मनवाना कहीं से भी संवैधानिक दृष्टिकोण से उचित नहीं है। पिछले आंदोलन से सबक लेते हुए हरियाणा सरकार ने आंदोलनकारियों से निपटने की तैयारियां शुरू कर दी हैं।

  • facebook
  • twitter
  • googleplus
  • linkedin

More News »