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अस्तित्व के संकट से जूझता वाममोर्चाम

By Dabangdunia News Service | Publish Date: May 28 2016 11:26AM | Updated Date: May 28 2016 11:26AM
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-कृष्णमोहन झा
विश्लेषक

हाल में ही जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए हैं, उनमें से मात्र केरल में ही वाममोर्चा की लाज बच पाई है और पं. बंगाल में उसे जो शर्मनाक हार हुई है उस पर तो वह केवल विलाप ही कर सकती है। केरल के मतदाताओं का जो मिजाज रहा है उसके हिसाब से इस राज्य में वाम मोर्चे को जीत मिलना पहले से ही तय माना जा रहा था। कांग्रेस के नेतृत्व वाले मोर्चे की पिछली सरकार पर जिस तरह के आरोप लगे थे उन्हें देखते हुए मतदाताओं को तो वाम मोर्चे को सत्ता के नेतृत्व की बागडोर सौंपने का विकल्प चुनना ही था और वहीं उन्होंने चुना। इसलिए केरल में अपनी जीत पर वाम मोर्चा खुशिया भले ही मना ले परंतु केरल की जीत से प. बंगाल में हुए नुकसान की भरपाई नहीं हो सकती।

प. बंगाल में वाममोर्चा ने कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन किया था परंतु इस गठजोड़ का लाभ कांग्रेस को अधिक मिला। वाम मोर्चे की मुखिया मार्क्सवादी पार्टी से अधिक सीटें तो कांग्रेस जीत ले गई। कांग्रेस ने जहां 44 सीटों पर जीत हासिल की वहीं मार्क्सवादी पार्टी को केवल 26 सीटों से संतोष करना पड़ा। कांग्रेस को प्राप्त मतों का प्रतिशत भी वाम मोर्चे को प्राप्त मतों के प्रतिशत से अधिक रहा। मार्क्सवादी पार्टी को इस शर्मनाक हार के बाद यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि प. बंगाल की जनता ने अभी तक माफ नहीं किया। मजेदार बात यह है कि प. बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली पिछली तृणमूल कांग्रेस सरकार को जिस तरह से भ्रष्टाचार के आरोपों को सामना करना पड़ा था उनसे तो वाम मोर्चा चुनावों के दौरान यह उम्मीद लगा बैठा था कि शायद कांग्रेस के साथ उसका गठबंधन सत्ता के नजदीक भी पहुंच सकता था परंतु चुनाव परिणाम इतने अप्रत्याशित रहे कि स्वयं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी अचरज से भर गई और वाम मोर्चे की उम्मीदों पर घड़ों पानी फिर गया। ममता बनर्जी को यह उम्मीद तो थी कि वे दुबारा सरकार बनाने लायक बहुमत हासिल कर लेगी परंतु उन्हें यह उम्मीद नहीं रही होगी कि उनकी पार्टी का 274 सदस्सीय विधानसभा की 211 सीटों पर कब्जा हो जाएगा। गौरतलब है कि 2011 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को 124 सीटों पर जीत हासिल हुई थी और तब उसने कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। इन चुनावों में वाम मोर्र्चे के साथ मिलकर चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस पार्टी को तब 42 सीटों पर विजय मिली थी। इस तरह चुनावों में तृणमूल कांग्रेस अकेले चुनाव लड़कर भी पहले से अधिक ताकतवर बनकर उभरी। कांग्रेस की शक्ति में कोई विशेष अंतर नहीं आया, लेकिन वाम मोर्चा शर्मनाक हार स्वीकार करने के लिए मजबूर हो गया। केरल में भले ही उसके हाथ में सत्ता की बागडोर आ गई हो, परंतु वहां मिली जीत से प. बंगाल में मिली हार के जख्म पर मरहम नहीं लगाया जा सकता।

प. बंगाल में कांग्रेस को जो सफलता मिली है वह मार्क्सवादी पार्टी को यह सोचने पर जरूर विवश कर रही होगी कि आखिर उसे इस गठजोड़ से क्या हासिल हुआ। मार्क्सवादी पार्टी ने शायद कांग्रेस से गठबंधन करके अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली, क्योंकि प. बंगाल में यह अनुमान भी लगाया जा रहा है कि चुनावी गठबंधन का धर्म कितनी अच्छी तरह मार्क्सवादी मोर्चे के कार्यकर्ताओं ने निभाया वैसा कांग्रेस की ओर से उसे प्रत्युत्तर नहीं मिला। राज्य में कांगे्रस का एक वर्ग वाम मोर्चे के साथ चुनावी तालमेल के खिलाफ था और यह संभावना व्यक्त की जा रही है कि गठबंधन से नाराज कांग्रेस के उस वर्ग के एक हिस्से ने शायद तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया।

प. बंगाल में अब राजनीतिक प्रेक्षक भी यह मान रहे हैं कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपनी पार्टी और सरकार की तमाम कमियों के बावजूद अगर सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली है तो इसका एकमात्र कारण यही है कि ममता सरकार ने पिछले पांच सालों में ग्रामीण क्षेत्रों की आबादी को अपने पक्ष में करने में सफलता पाई। ग्रामीण क्षेत्रों में ममता सरकार ने अनेक कल्याणकारी योजनाएं प्रारंभ की, जिन्होंने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को ग्रामीण क्षेत्रों में और लोकप्रिय बना दिया। युवा वर्ग और महिलाओं को भी प्रभावित करने में ममता बनर्जी सफल रहीं। ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क, पानी और बिजली से जुड़ी समस्याओं के समाधान तथा अत्यंत सस्ते दर पर खाद्यान्न उपलब्ध कराकर ममता बनर्जी ने उन क्षेत्रों की आबादी का दिल जीत लिया। ममता सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में छात्रों के लिए लाखों की संख्या में साइकिलें वितरित कराई। सिंगुर और नंदी ग्राम में अपने आंदोलन से उन्होंने 2011 के पूर्व ग्रामीण क्षेत्रों के मसीहा की छवि अर्जित की थी वह आज भी बरकार है बल्कि और मजबूत हुई है। ममता बनर्जी को अपनी पार्टी के उन अति उत्साही कार्यकर्ताओं के जोश पर भी नियंत्रण रखना होगा, जो जीत के मद में चूर होकर अभी से कानून व्यवस्था को चुनौती देने से बाज नहीं आ रहे हैं। भाजपा की पराजित उम्मीदवार रूपा गांगुली के साथ तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं द्वारा की गई कथित मारपीट की घटना ने पार्टी की प्रतिष्ठा पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। मुख्यमंत्री के रूप में ममता बनर्जी को अब एक सख्त प्रशासक भी बनकर दिखाना होगा ताकि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोका जा सके। उन्हें केवल सरकार चलाना है विपक्ष तो अब उनके लिए मुश्किलें खड़े करने की स्थिति में नहीं रह गया है।
 

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