-राजेंद्र खानविलकर
लेखक शिक्षक हैं।
इस वर्ष दसवी और बारहवीं के परीक्षा परिणामों ने जनमानस का दिल दहला दिया हैं। लगभग दर्जनभर बच्चों ने परीक्षा परिणामों से दुखी होकर मौत को गले लगाया हैं। ये आंकड़े भयावह इसलिए हैं, क्योंकि मरने वाले सभी बच्चों की उम्र लगभग 12 से 14 वर्ष के बीच की है। यदि सोचने बैठो तो मन में खयाल आता है कि कभी टीवी के रिमोट के लिए अपनों से रूठने वाले बच्चे जिंदगी से कैसे रूठ सकते हैं? कैसे कोई महज फेल होने पर आत्महत्या कर सकता है? इस साल फेल हो गए तो अगले साल फिर पास हो सकते थे। कैसे कोई बच्चा एक नंबर कम आने पर अपनी जान दे सकता है?
दरअसल हमारे देश में बच्चों की प्लानिंग से पहले माता-पिता इस बात की प्लानिंग करते हैं कि बच्चे को कौन से स्कूल में एडमिशन करवाना है? बच्चे के दो ढाई साल होते-होते उसे स्कूल रूपी कॉम्पिटिशन के दंगल में छोड़ दिया जाता है और मासूमों का बचपन कहीं खोता चला जाता है। मजे की बात यह होती है कि हर माता-पिता चाहते हैं कि उनका बेटा भी पड़ोस वाले शर्माजी के बेटे की तरह टेनिस खिलाड़ी, नेहराजी के बेटे जैसा स्वीमिंग में माहिर और कविता मेम के बेटे जैसा गणित में होशियार तो होना ही चहिए। फिर बच्चा सुबह से रात तक मां-बाप की उम्मीदों को पूरा करने में जुट जाता है। वो क्या चाहता है उससे कोई नहीं पूछता? अगर पूछे जाते हैं तो बस नंबर और उसकी ग्रेड, वो भी ए नहीं, ए प्लस होनी चहिए। बचपन में पिलाई गई कॉम्पिटिशन की यही घुट्टी बच्चों की नैसर्गिक प्रतिभा को कुंठित करती है और अंकों का यह गणित कब मां के आंचल को फांसी के फंदे में बदल देता है पता ही नहीं चलता।
बड़ा सवाल यह है कि आखिर इन नंबरों में ऐसा क्या है जो जिंदगी ही छीन ले? 45 फीसदी अंक लाने वाला छात्र क्या जीनियस नहीं हो सकता? सचिन तेंडुलकर, धीरुभाई अंबानी, बिल गेट्स, कपिल देव, मैरीकॉम, आइंस्टीन जैसे सैकड़ों नाम हैं जो स्कूल कॉलेज में बहुत होशियार तो नहीं रहे लेकिन वे हम सब के आदर्श रहे हैं।
पिछले दिनों देश का एजुकेशन हब कहे जाने वाले कोटा शहर में भी छात्रों की आत्महत्याओं का कड़वा सच सामने आया था। गाजियाबद से कोटा कोचिंग के लिए आई कृति त्रिपाठी जो जेईई मेंस पास कर चुकी थी वो केवल इस दबाव में आत्महत्या कर ले कि उसे इंजीनियर नहीं बनना है तो फिर सोचने में आता है कि ये उस सत्रह साल की बच्ची को गाजियाबद से कोटा पढ़ने भेजने के लिए जवाबदेह किसे माना जाए? जाहिर है जो स्टूडेंट जेईई मेंस क्लियर कर सकता है वो पढ़ाई में जीनियस ही रहा होगा, लेकिन कथित तौर पर उसे इंजीनियर बनाने की जिद ने न केवल उसे महीनों तक डिप्रेशन में रखा बल्कि उसे उसकी जिंदगी को जीने भी नहीं दिया। कभी-कभी कोचिंग संस्थाएं छात्रों पर पढ़ाई का इतना बोझ डाल देती हैं कि बच्चे घबरा जाते हैं। इसका भी खुलासा बच्चों ने अपने सुसाइड नोट्स में किया है। कोचिंग की महंगी फीस का दबाव, माता-पिता के सपनों पर खरा न उतर पाना तथा कॉम्पिटिशन के चलते बच्चों पर इतना अधिक दबाव पड़ता है कि वे उसे सहन नहीं कर पाते और जिंदगी की परीक्षा में फेल हो जाते हैं। हालांकि प्रदेश के यशस्वी मुख्यमंत्री ने असफल हुए बच्चों से भावनात्मक अपील जरूर की है कि वे निराश बिल्कुल भी न हो, सफलता के लिए फिर नए सिरे से प्रयास करें। इसी तर्ज पर असफल हुए छात्रों के लिए प्रदेश में रुक जाना नहीं नाम से एक योजना प्रारंभ की गई है जिसमें असफल छात्र एक बार पुन: प्रयास कर सकते हैं।
किंतु यह भी सच है कि इतना प्रयास काफी नहीं है। जरूरत ऐसे छात्रों को प्रोत्साहित करने की है जो दबाव में टूट जाया करते हैं, हर स्कूल में परीक्षा पूर्व ऐसी कार्यशाला आयोजित की जानी चहिए जो बच्चों पर से परीक्षा का दबाव कम कर सके।
एक और निवेदन शिक्षक साथियों से करना चाहता हूं कि जो गाहे बगाहे भरी क्लास में किसी औसत दर्जे के छात्र को बोलते रहते हैं कि तू मेरे से लिखवा ले तू कभी पास नहीं हो सकता? ये जुमला भले ही हमने उसके जमीर को जगाने के लिए कहा हो किंतु वो बच्चा यदि उसे दिल पर ले लेता है और परीक्षा परिणाम विपरीत आता है तो हमारे कहे वाक्य विष का काम करते हैं।
परीक्षा के दबाव को न सह पाने वाले बच्चों को समझाने की जरूरत है कि केवल एक इम्तिहान में फेल होने से न तो जिंदगी खत्म होती है और न ही अवसर खत्म होते हैं।