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Gagar Men Sagar

वे साधु नहीं निम्नस्तरीय मनुष्य हैं

By Dabangdunia News Service | Publish Date: May 18 2016 11:26AM | Updated Date: May 18 2016 11:26AM
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- अवधेश कुमार
सामाजिक व राजनैतिक विषयों पर लिखते हैं।


एकसमय था जब भारत के आम चुनावों मे बाहुबल का जोर होता था। ऐसे अनेक क्षेत्र थे जहां जीतने के लिए विरोधी मतदाताओं पर हमले होते थे, लोग मरते थे, घायल होते थे। यह स्थिति पूरी तरह खत्म नहीं हुई है, लेकिन लोकसभा विधानसभा चुनावों में काफी हद तक इसका अंत हो गया। हां, स्थानीय निकायों के चुनाव में हिंसा बढ़ी है। साधु-संतोंं के अखाड़े में महंथ के चयन पर दो गुटों में खूनी संघर्ष हो, लाठियां, त्रिशूल, भाले, फरसे और तलवार के साथ गोलियां चलें तो निश्चय ही धर्म में आस्था रखने वाले साधु-संतों में भगवान का रुप देखने वाले करोड़ो श्रद्वालुओं को धक्का लगेगा। सिंहस्थ में चले रहे कुंभ में श्री पंचायती आह्वान अखाडेÞ के श्रीमहंत के चुनाव में जो कुछ हुआ वह सन्न करने वाला है। कहा जा रहा है कि पिछले 10 दिनों से इस पद के लिए ब्रजेश पुरी महाराज का नाम चल रहा था। अचानक इसके प्रमुख नीलकंठ गिरि महाराज ने गणेशपुरी को श्रीमहंत घोषित कर दिया।

बस क्या था ब्रजेश पुरी महाराज के सर्मथक उग्र हो गए और थोड़ी देर तक बहस के बाद दोनों गुटों के बीच खूनी संघर्ष आरंभ हो गया। यह तो वैसे ही हुआ जैसे किसी के नाम पर प्रखंड प्रमुख बनने की सहमति थी या दबदबे से सहमति कायम की गई थी और ऐन वक्त  पर दूसरे के नाम के निर्वाचन के बाद फिर जूतम पैजार से लेकर गोलियां चलने लगीं। सामान्य जीवन में तो पद का मोह समझ में आता है। हालांकि सार्वजनिक जीवन में अवधारणा तो सेवा भाव से ही काम करने का है, फिर भी आम मनुष्य यदि पद और उससे मिलने वाले प्रभाव और पैसे के चक्कर में पड़ता है तो इसे उसकी अज्ञानता कहकर माफ भी किया जा सकता है। लेकिन साधु-संन्यासी का तो अर्थ ही कि वो समस्त मोह माया से परे उठकर आत्मसाधना के लिए दुनियावी जीवन से परे चले गए हैं। उनके लिए पद, प्रभाव, पैसा, प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा, नाम-अनाम...ये सब तुच्छ हैं। जब शरीर ही नश्वर है तो फिर इसके साथ जुड़ा हर चीज तुच्छ और त्याज्य है। साधु संतोके संगठनों में यदि आचरण इस सोच के विपरीत है, वहां भी पदो के प्रति वैसे ही आकर्षण है जैसे आम जीवन में, हम कैसे महंत या अखाड़ा के प्रमुख बने, महामंडलेश्वर बनें, शंकराचार्य बनें ...आदि के लिए गोटियां बिठाई जातीं हैं, शह और मात की चालें चलीं जा रहीं हैं, लोभ और भय दोनों का इस्तेमाल हो रहा है तो फिर यह धर्मसत्ता के अध:पतन की ही निशानी है। साधुओं मेंं अखाड़ों की परंपरा व्यवस्था के सुचारु रुप से संचालन के लिए कायम हुई थी। इसके पीछे सोच यह थी कि उस अखाड़े में आने वाले साधना और कर्मकांड के जो नीति-नियम हैं उनका पालन करें और वे कर रहे हैं या नहीं उनकी निगरानी हो। नए लोगों को विधिवत अखाड़ों की साधनाओं का शास्त्रीय और व्यावहारिक ज्ञान मिले, वे उसके पालने को प्रवृत्त हों, इसीलिए उनके पदों की व्यवस्था की गई। यानी ध्येय पद नहीं, धर्म का पालन था। यम, नियमों के आधार पर साधना के उच्चतम सोपान तक ले जाना था। पद केवल इस पूरी प्रणाली के संचालन के लिए सृजित हुआ। उसमें भी ऐसे लोगों को उस पर विराजने का विधान बना जिनके आचरण से ही अखाड़ों के शेष लोग नियमों का पालन करें। उनके पास इतना ज्ञान हो कि कोई भी प्रश्न उठे उसका वे समाधान कर सकें।

आप देख लिजिए अनेक मठों, मंदिरों और अखाड़ों के साधु कितने तामझाम, सुख-सुविधाओं और ऐश की जिंदगी जी रहे हैं। यह खुलेआम दिखाई देता है। ऐसे में उसकी ओर आकर्षण का एक बड़ा कारण धर्म नहीं वही भोग और ऐश्वर्य की जिंदगी भी होती है। ऐश की जिंदगी जियो, हजारों-लाखों भोले लोगों का सम्मान पाओ, जय-जयकार करवाओं और साधु बने रहो। दुर्भाग्यवश यह जो प्रवृत्ति धर्मक्षेत्र में बढ़ी है उसे रोकने का कोई उपाय धर्मसत्ता ने नहीं किया है। इससे नीति की जगह अनीति, धर्म की जगह अधर्म, संयम की जगह वासना, त्याग की जगह भोग.....समूचे धर्मक्षेत्र को ग्रसित कर रहा है। उसके लिए हर हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। सिंहस्थ की हिंसा तो समूचे क्षरण का एक छोटा अंश है। कम से कम हमारे आम जीवन की प्रणाली मेंं निर्वाचन के लिए निर्वाचन आयोग है,जिसके पास अधिकार हैं...समीक्षा के लिए मीडिया की पैनी नजर है और विरोध करने के लिए अनेक संगठन हैं।  एक हद तक धर्मसत्ता के पतित होने का परिणति ही राजसत्ता एवं पूंजीसत्ता के पतन के रुप में हमारे सामने है। आज भी एक साधु संत की बात सुनने वाले और मानने वालों की संख्या बहुत ज्यादा है। उनका असर भी है, पर वे ही पतित हो जाएं तो फिर क्या हो सकता है? इसलिए यह कहना ज्यादा सही है कि जैसे राजसत्ता यानी राजनीति में व्यापक परिवर्तन के लिए, पूंजीसत्ता यानी धन और व्यापार के क्षेत्र को ठीक करने के लिए आंदोलन और संघर्ष की आवश्यकता है वैसे ही धर्मसत्ता को भी रास्ते पर लाने के लिए संघर्ष की जरुरत है। हां, यह संघर्ष धर्मसत्ता के अंदर से हो यही यथेष्ट होगा और इसी से सुधार भी संभव हो पाएगा।
 

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