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रेगिस्तान होते लोकतंत्र में विचरते शुतुरमुर्ग

By Dabangdunia News Service | Publish Date: May 14 2016 10:13AM | Updated Date: May 14 2016 10:13AM
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-चिन्मय मिश्र
-समसामयिक विषयों पर लिखते हैं।


भारत में लोकतांत्रिक संस्थानों की वर्तमान स्थिति को शायद इससे बेहतर ढंग से व्याख्यायित कर पाना कठिन है। चुने हुए संस्थानों के प्रति बढ़ता अविश्वास, बेचैनी, नाराजगी और हताशा एक साथ हम सबके दिमाग पर हावी होती जा रही है। हर रोज सबेरे अखबार पढ़ने के बाद संविधान का अनुच्छेद 21 बरबस याद आ जाता है जिसमें लिखा है। ‘‘प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण: किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं।’’ परंतु देश भर के सामाजिक कार्यकर्ता नागरिकों को तिल-तिल मरते देख कर भयभीत हो गए हैं। वे संबंधित राज्य सरकारों से अपील करते हैं, प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्री परिषद् से गुहार लगाते हैं और अंतत: सर्वोच्च न्यायालय पहुंचते हैं, अपने ही देश के नागरिकों की जीवन की रक्षा और गरिमामय जीवन जीने देने के लिए अनुकूल स्थितियों की निर्मिति के लिए। हर तरफ हाहाकार मचा है। अभी तक तो लग रहा था कि चुनी हुई सरकारों ने आम जनता की ओर से आंखे मूंद ली हैं। परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने स्वराज अभियान द्वारा दायर जनहित याचिका के निर्णय में यह कहकर कि ‘‘सूखे पर सरकारों का रवैया शुतुरमुर्ग जैसा है’’ वर्तमान परिस्थितियों एवं कार्यप्रणाली को उधेड़कर रख दिया है।

पिछले ही हफ्ते मध्यप्रदेश के सलिकोसिस पीड़ितों के लिए मुआवजा संबंधी निर्णय देते हुए सर्वोच्च न्यायालय  ने कहा था कि ‘‘इस बात को संज्ञान में लेना आवश्यक है कि सर्वोच्च न्यायालय ने जीवन को व्यापक अर्थ प्रदान किया है, इसके अंतर्गत उसने अवलोकित किया है कि मनुष्य को गरिमामय जीवन जीने का अधिकार है, जो कि सभी प्रकार के शोषण से मुक्त हो तथा ऐस े वातावरण में हो जो कि उसके स्वास्थ्य एवं कल्याण में सहायक हो।’’ वैसे उपरोक्त दोनों निर्णय अलग से विमर्श की अनिवार्यता जतलाते हैं। इस बीच उत्तराखंड का मामला भी सामने आया। भारतीय जनता पार्टी क े कथित सिपहसालारों के अति उत्साह ने केंद्र सरकार की आंखों पर पर्दा डाल दिया और राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। हम सबने देखा कि इससे न केवल केंद्र सरकार की प्रतिष्ठा घटी बल्कि भारतीय लोकतंत्र को आजादी के बाद के सबसे बड़े  संकटों में से एक से गुजरना पड़ रहा है। 

गौरतलब है कि यदि लोकतांत्रिक संस्थानों के सर्वोच्च मुखिया पर ऊंगली उठने लगेगीं तो लोकतंत्र कैसे कायम रह पाएगा? उत्तराखंड के मसले पर केंद्र सरकार ने अनावश्यक रूप से राष्ट्रपति को विवाद में खींचा और उत्तराखंड न्यायालय को बाध्य होकर उन पर टिप्पणी करना पड़ी। इन परिस्थितियों से आसानी से बचा जा सकता था। परंतु सत्ता का मद लोकतंत्र और राजशाही के बीच के अंतर और विवेक को हर लेता है। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने राज्यसभा में न्यायापालिका पर काम में दखलंदाजी का आरोप लगाया और कहा कि सरकार न्यायिक सक्रियता से परेशान हो रही है। सरकार से सभी कामों में न्यायालय का हस्तक्षेप बढ़ गया है। यह न्यायपालिका का अतिक्रमण है।

पता नहीं यह वित्तमंत्री की स्वीकारोक्ति है, व्यंग्य है । परंतु इससे यह स्पष्ट हो गया कि आम जनता इस समय सिर्फ न्यायपालिका के भरोसे है। भारत के प्रधान न्यायाधीश की आंखों  से निकले आंसू पोछनें  के बजाए इस तरह की प्रतिक्रियाएं वह भी ऐसे मंत्री की ओर से आना जो कि स्वयं भारत के महत्वपूर्ण अधिवक्ता रह चुके हों, अत्यंत व्यथित करता है। यह सर्वोच्च न्यायालय के इस कथन को कि ‘‘सूखे पर सरकारों का रवैया शुतुरमुर्ग जैसा है’’ को और विस्तार प्रदान करता है। वित्तमंत्री का संसद में बयान और उत्तराखंड में केंद्र  सरकार का व्यवहार और क्या है? 
उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन वाले मामले को ही लें। संसदीय कार्यमंत्री लगातार गणित ही समझाते रहे हैं कि कांग्रेस ने कितनी बार राष्ट्रपति शासन लगाया और हमने कितनी बार। वैसे संभवत: वह पहले ऐसे संसदीय कार्य मंत्री हैं जिन्हें देखकर लगता है कि वे लगातार टकराव की मुद्रा में रहते हैं। यानी जब तक वे संख्या में कांग्रेस की बराबरी नहीं कर लेंगे तब तक चैन से नहीं बैठेंगे। यह संख्या कब बराबरी पर आएगी और क्या उसके बाद ही भाजपा नीत सरकार विवेकपूर्ण निर्णय लेगी? गौरतलब है कि स्वराज अभियान की सूखा संबंधी जनहित याचिका पर निर्णय लिखते हुए न्यायाधीशों न्यायमूर्ति एम.बी लोकुर एवं न्यायमूर्ति एन. वी. रमन ने शुरूआत लोकमान्य तिलक के विचार ‘‘समस्या संसाधन या क्षमता की नहीं है बल्कि इच्छाशक्ति की है’’ से की है। परंतु शुतुरमुर्गों के बाड़े में इच्छाशक्ति कहीं बाहर से थोड़े  ही आयात की जा हम पंचायत से लेकर संसद तक जनप्रतिनिधियों को इसीलिए चुनते हैं जिससे कि कार्यकारी निर्णयों का विकेंद्रीयकरण हो सके। वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। जैसे-जैस लोकतंत्र की उम्र बढ़ती जा रही है उसमें अपरिपक्वता और जिद बढ़ती जा रही है। मतभेद अब विवाद में और विवाद व्यक्तिगत दुश्मनी जैसे  दिखने लगे हैं। किसी भी प्रकार की कोई सामाजिक देयता अब कम ही दिखाई देती है। हर मामले में राजनीतिक सत्ता दल का हस्तक्षेप अपने चरम पर है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति लिख रहे हैं कि ‘‘केंद्र इस बात के लिए स्वतंत्र है कि वह या तो विश्वविद्यालय बंद कर दे या किसी संसद सदस्य या विधायक को इलाहाबाद विश्वविद्यालय का कुलपति बना दे।’’ अब ऐसे  में लोकतांत्रिक मूल्यों की परवाह कौन करेगा। हममें से अधिकांश लोग न्यायालयीन प्रक्रियाओं को लेकर बहुत संतुष्ट नहीं हैं और यह भी मानते हैं कि यह अत्यंत खर्चीली एवं समय लेने वाली प्रक्रिया है। इसके बावजूद उसी के सहारे देश को रास्ते पर लाने का प्रयास कर रहे हैं। क्या भारतीय विधायिका और कार्यपालिका अपने आंख-कान खोलकर, यह देख समझ नहीं सकती कि उसके खिलाफ बढ़ता असंतोष अंतत: इस देश और देश द्वारा अपनाए गए लोकतंत्र को कहां ले जाएगा?
 

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