- अश्विनी कुमार
लेखक पंजाब केसरी दिल्ली के संपादक हैं।
अगर डा. फारूक अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर फारूक इस गलतफहमी में हैं कि जम्मू-कश्मीर उनकी निजी जायदाद है तो उन्हें सबसे पहले 1974 दिसंबर में अपने वालिद शेख मुहम्मद अब्दुल्ला का लिखा गया वह करार पढ़ लेना चाहिए जो उन्होंने तब की वजीरेआजम इंदिरा गांधी के साथ किया था। इस समझौते की दूसरी शर्त में साफ लिखा हुआ है कि इस रियासत में ऐसे अलगाववादी व उपद्रवी तत्वों से निपटने के लिए भारत की संसद को प्रभावी कानून बनाने का अधिकार होगा जो भारतीय संघ की संप्रभुता व भौगोलिक एकता को चुनौती देने की जुर्रत करेंगे अथवा संघ के किसी हिस्से या भाग को अलग करने की कोशिशें करेंगे। इसके साथ ही भारत की संसद ऐसे तत्वों को नियंत्रित करने के लिए भी जरूरी कदम उठाने के लिए अधिकृत होगी जो भारतीय ध्वज, राष्ट्रीय गान और संविधान का अपमान करने की कोशिश करेंगे। इस समझौते की पहली शर्त यह थी कि जम्मू-कश्मीर राज्य, जो कि भारत का एक हिस्सा है, उसके भारत की संघीय सरकार के साथ सम्बन्ध संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत निर्धारित रहेंगे।
जाहिर है कि केंद्र सरकार को शेख अब्दुल्ला ने यह समझौता करते हुए यह अधिकार दिया था कि भारत की भौगोलिक एकता और संप्रभुता की सुरक्षा करने के उसके पास पूरे अख्तियार होंगे। किसी साधारण नागरिक को भी मालूम होता है कि भारत की स्वयंभू सरकार अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा का जिम्मा देश के रक्षामंत्री पर छोड़ती है और रक्षामंत्री यह कार्य देश की सुरक्षा सेनाओं की मार्फत करते हैं। अत: यह जिम्मेदारी देश के रक्षा मंत्रालय की है कि वह जम्मू-कश्मीर में राष्ट्र विरोधी तत्वों का दमन करके राष्ट्रीय एकता और अखंडता को बुलंद रखे। समझौते में यह प्रावधान भी इसी शर्त में है कि रियासत के पास व्यवहारगत संवैधानिक अधिकार इस बाबत कानून बनाने के रहेंगे। अत: बहुत साफ है कि पूरे जम्मू-कश्मीर राज्य में ऐसी सैनिक कालोनियों को बनाने से नहीं रोका जा सकता है जो रियासत की अवाम की सुरक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए तैनात की गई हों मगर अनुच्छेद 370 के तहत यह प्रावधान है कि राज्य में केवल वे लोग ही बस सकते हैं जो इस राज्य के मूल निवासी हों। रक्षामंत्री ने राज्य के सैनिकों की दरख्वास्त पर कश्मीर वादी में भी सैनिक कालोनी बनाने का प्रस्ताव राज्य सरकार के पास भेजा जिस पर नेशनल कान्ंफ्रेस पार्टी के पूर्व मुख्यमंत्री उमर फारूक ने बखेड़ा खड़ा करते हुए कहा कि राज्य की पीडीपी-भाजपा सरकार सैनिकों की कॉलोनी बसाने के लिए जमीन दे रही है।
उमर फारूक पूरे छह साल इस राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं और उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि भारतीय सेना कितनी कठिन परिस्थितियों में कश्मीर वादी में काम करती है। इस राज्य की सुरक्षा के लिए सशस्त्र बलों के हजारों सैनिक अपनी जान कुर्बान कर चुके हैं। क्या उन्हें यह हक भी नहीं है कि वे अपने परिवारों के साथ रह कर कश्मीर की सुरक्षा की जिम्मेदारी निभा सकें। क्या भारत की सेना के जवानों को इतना भी हक नहीं है? जब जम्मू-कश्मीर राज्य के जम्मू और लद्दाख इलाकों में सैनिक कालोनियां बन सकती हैं तो कश्मीर वादी में क्यों नहीं बन सकतीं। सूबे का जो कानून जम्मू व लद्दाख में लागू होता है वही कानून तो कश्मीर वादी में भी लागू होता है। इससे ऊपर केवल राज्य के सेना में भर्ती जवानों के लिए ही तो ऐसी कॉलोनी बनाने की मांग हो रही है और सैनिक बोर्ड की तरफ से ऐसी मांग आयी है जिसे रक्षामंत्री ने विचार योग्य माना है, लेकिन असली सवाल यह है कि जब हमारी सेनाएं जम्मू-कश्मीर राज्य के लोगों के दुख-दर्द में जी-जान लगा कर उन्हें दुखों से दूर रखने में अपनी जान तक न्यौछावर कर सकती हैं तो क्या उन्हें इतना भी हक नहीं मिलना चाहिए कि वे इस सूबे में रहने का बसेरा भी न ढूंढ सकें। क्या फारूक साहब को बताना होगा कि जब दो साल पहले श्रीनगर समेत आसपास के इलाके बाढ़ में पूरी तरह डूब गए थे तो आम जनता को इस मुसीबत से किसने निकाला था और खुद पानी में डूबे रह कर साधारण स्त्री-पुरुषों के जान-माल की हिफाजत किसने की थी?
वे लोग ऊपर जन्नत से नहीं आए थे बल्कि इसी भारतीय फौज के जवान थे। तब तो फारूक साहब की हुकूमत के कारिंदे कहीं ऊंची इमारतों में छुप कर खुद अपनी खैरियत की दुआ कर रहे थे मगर क्या कयामत है कि वह फारूक साहब उन फौजियों की ही गैरत को ललकार रहे हैं जिन्होंने अपनी जान हथेली पर रख कर इस सूबे को हर आफत से बचाया है और उस पर आई हर बला को अपने दिल पर लिया है, जो उमर फारूक वजीरेआला रहते हुए मुल्क के दुश्मन दहशतगर्दों के बीच श्रीनगर में ही रहता रहा वह आज फौजियों के बसने पर ही कयामत ढहा देना चाहता है। मैं रियासत की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती से भी दरख्वास्त करना चाहता हूं कि वह इस मामले पर किनारे होने की कोशिश न करें बल्कि पूरे अख्तियार के साथ कहें कि सैनिकों के लिए कालोनी बनाने में सूबे का संविधान कहीं कोई अड़चन नहीं है क्योंकि मुल्क की हिफाजत के साथ ही जम्मू-कश्मीर की हिफाजत पक्के तौर पर बावस्ता है। फारूक साहब तो अपने दादा के लिखे को ही पढ़ने से भाग रहे हैं।