26 Apr 2024, 13:07:59 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

गौतम बुद्ध ने उपदेश देते हुए कहा, 'देश में अकाल पड़ा है। लोग अन्न एवं वस्त्र के लिए तरस रहे हैं। उनकी सहायता करना हर मनुष्य का धर्म है। भोजन के साथ ही आप लोगों के शरीर पर जो वस्त्र हैं, उन्हें दान में दे दें।' यह सुनकर कुछ लोग उठकर चले गए। कुछ कहने लगे, 'यदि वस्त्र इन्हें दे दें तो हम क्या पहनेंगे?' उपदेश समाप्त हुआ। सभी श्रोता चले गए, पर निरंजन बैठा रहा। वह सोचने लगा - मेरे शरीर पर एक वस्त्र है। अगर मैं अपने वस्त्र दे दूंगा तो मुझे नग्न होना पड़ेगा। फिर उसने सोचा - मनुष्य बिना वस्त्र के पैदा होता है और बिना वस्त्र के ही चला जाता है। साधु-संन्यासी भी बिना वस्त्र के रहते हैं। उसने अपनी धोती दे दी। बुद्ध ने उसे आशीर्वाद दिया।
 
 
निरंजन अपने घर की ओर चल पड़ा। वह खुशी से चिल्लाकर कह रहा था, 'मैंने अपने आधे मन को जीत लिया।' तभी निरंजन ने देखा कि दूसरी ओर से महाराज प्रसेनजित चले आ रहे हैं। निरंजन की बात सुनकर उन्होंने उससे पूछा, 'तुम्हारी बात का क्या अर्थ है?' निरंजन ने उत्तर दिया, 'महाराज! महात्मा गौतम बुद्ध दुखियों के लिए दान में वस्त्र मांग रहे थे। यह सुनकर मेरे एक मन ने कहा कि शरीर पर पड़ी एकमात्र धोती दान में दे दो, परंतु दूसरे मन ने कहा, यह भी दे दोगे तो पहनोगे क्या? दान देने वाले मन की विजय हुई। मैंने धोती दान में दे दी।' यह सुनकर प्रसेनजित ने अपना परिधान उतारकर निरंजन को दे दिया। निरंजन ने उसे भी महात्मा बुद्ध के चरणों में डाल दिया। बुद्ध ने निरंजन को हृदय से लगाते हुए कहा, 'जो अपना सब कुछ दान कर  देता है, उसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता।'
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