26 Apr 2024, 05:47:34 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

एक दरोगा संत दादू की ईश्वर भक्ति और सिद्धि से बहुत प्रभावित था। उन्हें गुरु मानने की इच्छा से वह उनकी खोज में निकल पड़ा। लगभग आधा जंगल पार करने के बाद दरोगा को केवल धोती पहने एक साधारणसा व्यक्ति दिखाई दिया। वह उसके पास जाकर बोला, क्यों बे तुझे मालूम है कि संत दादू का आश्रम कहां है? वह व्यक्ति दरोगा की बात अनसुनी कर के अपना काम करता रहा।
 
 
भला दरोगा को यह सब कैसे सहन होता? लोग तो उसके नाम से ही थर-थर कांपते थे, उसने आव देखा न ताव, लगा गरीब की धुनाई करने। इस पर भी जब वह व्यक्ति मौन धारण किए काम करता रहा तो दरोगा ने आगबबूला होते हुए एक ठोकर मारी और आगे बढ़ गया। थोड़ा आगे जाने पर दरोगा को एक और आदमी मिला। दरोगा ने उसे भी रोककर पूछा, 'क्या तुम्हें मालूम है संत दादू कहां रहते हंै?' 'उन्हें भला कौन नहीं जानता, वे तो उधर ही रहते हैं, जिधर से आप आ रहे हैं। यहां से थोड़ी दूर पर उनका आश्रम है। मैं भी उनके दर्शन के लिए जा रहा था। आप मेरे साथ ही चलिए।' वह व्यक्ति बोला। दरोगा मन ही मन प्रसन्न होते हुए साथ चल दिया। राहगीर जिस व्यक्ति के पास दरोगा को ले गया, उसे देखकर वह लज्जित हो उठा, क्योंकि संत दादू वही व्यक्ति थे, जिसे दरोगा ने मामूली आदमी समझकर अपमानित किया था। वह दादू के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा। बोला, 'महात्मन् मुझे क्षमा कर दीजिए, मुझसे अनजाने में अपराध हो गया।' दरोगा की बात सुनकर संत दादू हंसते हुए बोले, 'भाई, इसमें बुरा मानने की क्या बात? कोई मिट्टी का एक घड़ा भी खरीदता है तो ठोक-बजाकर देख लेता है। फिर तुम तो मुझे गुरु बनाने आए थे।' संत दादू की सहिष्णुता के आगे दरोगा  नतमस्तक हो गया।
 
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