26 Apr 2024, 15:20:38 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

महाभारत युद्ध चल रहा था। अर्जुन के सारथी श्रीकृष्ण थे। जैसे ही अर्जुन का बाण छूटता, कर्ण का रथ कोसों दूर चला जाता। जब कर्ण का बाण छूटता, तो अर्जुन का रथ सात कदम पीछे चला जाता। श्रीकृष्ण ने अर्जुन के शौर्य की प्रशंसा के स्थान पर कर्ण के लिए हर बार कहा कि कितना वीर है यह कर्ण, जो हमारे रथ को सात कदम पीछे धकेल देता है। अर्जुन बड़े परेशान हुए। कृष्ण से वह पूछ बैठे, हे वासुदेव! यह पक्षपात क्यों? मेरे पराक्रम की आप प्रशंसा नहीं करते एवं मात्र सात कदम पीछे धकेल देने वाले कर्ण को बारंबार वाहवाही देते हैं। श्रीकृष्ण बोले, अर्जुन तुम जानते नहीं। तुम्हारे रथ में महावीर हनुमान एवं स्वयं मैं वासुदेव कृष्ण विराजमान हूं। यदि हम दोनों न होते, तो तुम्हारे रथ का अभी अस्तित्व भी नहीं होता। इस रथ को सात कदम भी पीछे हटा देना कर्ण के महाबली होने का परिचायक है। यह सुनकर अर्जुन को ग्लानि भी हुई। प्रत्येक दिन अर्जुन जब युद्ध से लौटते, तो श्रीकृष्ण पहले उतरते, फिर सारथी धर्म के नाते अर्जुन को उतारते। अंतिम दिन कृष्ण बोले, अर्जुन! तुम पहले उतरो रथ से और थोड़ी दूरी तक जाओ। भगवान के उतरते ही घोड़ा सहित रथ भस्म हो गया। अर्जुन आश्चर्यचकित थे। भगवान बोले, पार्थ! तुम्हारा रथ तो कभी का भस्म हो चुका था। भीष्म, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य और कर्ण के दिव्यास्त्रों से यह कभी का नष्ट हो चुका था। मेरे संकल्प ने इसे युद्ध समापन तक जीवित रखा था। अपनी विजय पर गर्वोन्नत अर्जुन के लिए गीता सुनने के बाद इससे बढ़कर और क्या उपदेश हो सकता था कि सब कुछ भगवान का किया हुआ है। वह तो निमित्त मात्र था। काश, हमारे अंदर का अर्जुन इसे समझ पाए।

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