26 Apr 2024, 20:18:23 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

माही नदी के तट पर अभिरामदास नाम के महात्मा रहते थे। वह अपनी यौगिक सिद्धियों के लिए प्रसिद्ध थे। कहते हैं कि मगध नरेश के निमंत्रण पर प्रतिदिन दोपहर को वह आकाश मार्ग से उड़कर भिक्षा लेने आया करते थे। मगधपति यथाशक्ति उनका सम्मान करते थे। एक दिन मगधपति को कुछ दिनों के लिए राजधानी से बाहर जाना पड़ा। उन्हें चिंता हुई कि सिद्धयोगी के लिए भिक्षा की क्या व्यवस्था की जाए। उनके आने का समय हो गया था।

बहुत सोच-विचार के बाद उन्होंने एक परिचारिका को इस काम में लगाया। परिचारिका ने दायित्व स्वीकार किया और मगध नरेश राजभवन से निकल गए। नियत समय पर महाराज अभिरामदास आकाश मार्ग से राजप्रांगण में आए। परिचारिका ने उनका यथेष्ट स्वागत किया। महात्मा ने आसन ग्रहण किया। वह भोजन करने लगे। परिचारिका उनकी सेवा में तत्पर थी। योगी उसके रूप यौवन पर इस तरह आसक्त हुए कि उसे ललचाई निगाहों से देखने लगे।

एकाध बार ऐसी पहल भी की कि दासी संकोच में पड़ गई। खैर, जैसे-तैसे उन्होंने अपने आपको संभाला और वहीं रुकने की मंशा जताई। इसका कारण था कि वह उड़कर, आकाश मार्ग से वापस नहीं जा पा रहे थे। उन्होंने कहा कि दासी! आज मेरा उड़कर जाने का विचार नहीं है। लोगों को बता दो कि वे मुझसे मिलकर अपनी समस्याएं कह सकते हैं। उनसे मिलने बड़ी संख्या में लोग आए।

शाम के वक्त महात्मा की जय-जयकार करते हुए जब सभी लोग लौट गए, तो महात्मा ने एक बार फिर कोशिश की कि वे उड़कर आश्रम तक जा सकें। लेकिन वह सफल न हो सके। आखिरकार वह पैदल ही गए। केवल एक क्षण के लिए युवती का रूप देखने से उनकी योगसिद्धि समाप्त हो गई। वासना बड़े-बड़े सिद्ध पुरुषों का आत्मबल लील लेती है। इसलिए संयम जरूरी है।

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