26 Apr 2024, 18:08:15 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-अश्विनी कुमार
लेखक पंजाब केसरी दिल्ली के संपादक हैं।


अमरीका के साथ बेहद करीबी रणनीतिक साझेदारी को लेकर भारत काफी संवेदनशील रहा है। इसे लेकर राजनीतिक विरोध को देखते हुए पहले की सरकारें ज्यादा आगे बढ़ने से परहेज करती रही हैं। रणनीतिक साझेदारी को लेकर पिछली यूपीए सरकार के समय भी समझौता नहीं हो पाया था। पहले भारत का मानना था कि रक्षा साजो-सामान समझौते को अमरीका के साथ गठबंधन के तौर पर देखा जाए। इस बात पर काफी चिंतन-मंथन किया गया कि साझा सहयोग लाजिस्टिक सपोर्ट एग्रीमेंट (एलएसए) का स्वरूप कैसा हो?

मोदी सरकार ने अमरीका से संबंधों को मजबूत बनाने के लिए काफी आगे बढ़ना तय किया है। रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर और अमरीका के रक्षा मंत्री एश्टन कार्टर ऐतिहासिक समझौते के करीब हैं। भारत और अमरीका जल्दी ही एक-दूसरे के सैन्य ठिकानों की सेवाओं को साझा कर सकेंगे। एक-दूसरे की सेनाओं के विमानों और सैन्य नौकाओं को एक-दूसरे के यहां ईंधन भरने, मरम्मत करवाने और आराम करने की छूट होगी। सेनाओं का मानवीय आधार पर चलाए जाने वाले आॅपरेशनों में  उपयोग किया जा सकेगा। दोनों देशों में समुद्र सुरक्षा समझौते पर बातचीत शुरू करने पर भी सहमति बनी है। भारत और अमरीका के बीच इस नजदीकी को चीन को साधने की रणनीति से भी जोड़कर देखा जा रहा है। यह सही है कि भारत को चीन से मिल रही चुनौतियों और हिंद महासागर क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए अपने रक्षा क्षेत्र को बहुत ही मजबूत करने की जरूरत है लेकिन अमरीका के साथ रक्षा क्षेत्र में प्रगाढ़ संबंधों को धार देने से उसके अपने लक्ष्य पूरे होंगे या नहीं, यह कहना मुश्किल है।

अमरीका पिछले दस साल से इसकी कोशिश में था कि भारत के साथ लाजिस्टिक सपोर्ट समझौता हो जाए क्योंकि भारत के रक्षा विशेषज्ञों को हमेशा इस बात की आशंका रही कि एलएसए के बाद देश के रक्षा क्षेत्र में स्वायत्तता प्रभावित होगी, वहीं भारत अमरीका के जाल में फंस जाएगा। अब भारत-अमरीका दोनों ने एशिया प्रशांत और हिंद महासागर क्षेत्र में आपसी सहयोग को बढ़ावा देने, दक्षिण चीन सागर में निर्बाध यातायात और फ्री फ्लाई जोन को महत्व देने, रक्षा तकनीकी और व्यापार की पहल, समुद्री क्षेत्र की रक्षा, सैन्य बलों के बीच आदान-प्रदान और आपसी हितों को वरीयता देने, क्षेत्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देने की बात की है। अब जबकि इस समझौते पर जल्द हस्ताक्षर होने की संभावना है, अहम सवाल सामने है जैसे  क्या इससे देश के रक्षा क्षेत्र की स्वायत्तता प्रभावित नहीं होगी?  क्या अमरीकी भारत की जासूसी नहीं करेंगे? क्या अमरीका से बढ़ती नजदीकी पाक की नापाक हरकतों पर अंकुश लगा सकेगी? जो अमरीका पाकिस्तान को लड़ाकू एफ-16 विमान और अन्य सैन्य साजो-सामान दे रहा है और भारत के मिसाइल कार्यक्रम पर जिसको आपत्ति हो, उस पर कितना विश्वास किया जा सकता है?  जिस चीन ने हमें चारों तरफ से घेर रखा है, जो पाक अधिकृत कश्मीर में अपनी सैन्य मौजूदगी से हमारे सिर पर आ बैठा है, क्या हम उसकी धमक को कम कर पाएंगे? अमरीका की दोरंगी चालों को भारत पहले ही देख चुका है। क्या वह चीन पर दबाव बनाने के लिए भारत के कंधे का इस्तेमाल तो नहीं कर रहा? अगर अमरीकियों की घुसपैठ हो गई तो हमारे सत्ता प्रतिष्ठान  भी अछूते नहीं रहेंगे। कभी चंद्रशेखर सरकार ने इराक पर बमबारी करने वाले अमरीकी युद्धक विमानों को भारतीय हवाई अड्डों पर तेल भरने की सुविधा दी थी तो राजनीतिक तूफान उठ खड़ा हुआ था। जब अमरीका ने 9/11 हमले के बाद आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध का आह्वान किया था तो भारत ने अमरीका के लिए ऐसा उत्साह दिखाया था, उतना तो नाटो के अनेक सदस्यों ने भी नहीं दिखाया था। पहले भारत के विदेश मंत्री ने अमरीका को सभी प्रकार की सुविधाएं देने की घोषणा की और बाद में प्रधानमंत्री ने सारे देश से आह्वान कर दिया कि इस आतंकवाद विरोधी युद्ध में कूदने के लिए तैयार हो जाएं लेकिन अमरीका ने अपना सहयोगी बनाया पाकिस्तान को। भारत बार-बार मूर्ख बन रहा है।

अमरीकियों की नजर में कश्मीर और पंजाब में एक लाख से अधिक लोग जो आतंकवाद के काल के गाल में समा चुके हैं, उनकी कोई कीमत नहीं। कई देशों में विध्वंस का खेल खेलने वाला अमरीका शैतान से फरिश्ता नहीं हो सकता। भारत को यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में या चीन की चुनौती का मुकाबला करने में अमरीका उसको सक्रिय सहयोग देगा। भारत को इस्राइल जैसा सुरक्षा कवच तैयार करना होगा ताकि उसकी ओर कोई देश आंख उठाकर भी न देख सके। भारत ने अगर अपने दुश्मनों को मारना नहीं सीखा तो आने वाले समय में भी उसे आतंकी हमलों का दर्द झेलना होगा। भारत ने कभी भी इस्राइल की खुफिया एजेंसी मोसाद की तरह अपने दुश्मनों को ढूंढ कर मार डालने का साहसिक कदम नहीं उठाया। भारत को अमरीकियों की तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखना बंद करना होगा और चीन की चुनौतियों से निपटने के लिए हर ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल करना होगा।
 

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