26 Apr 2024, 18:08:58 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-वीना नागपाल

दस महीने से लेकर पंद्रह महीने के नन्हे-मुन्ने शिशु न केवल क्रोध को समझते हैं बल्कि अपनी प्रतिक्रिया भी देते हैं। पश्चिम के मनोवैज्ञानिक भी कमाल करते हैं। वह यह तक जानने और समझने की कोशिश कर रहे हैं कि नकरात्मक भाषा- जैसे गुस्से से भरे शब्दों को यदि यह नन्हे शिशु समझते हैं तो यह प्रतिक्रिया देते हैं और उनके व्यक्तित्व पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है।

लगभग इस आयु के 200 शिशुओं को इस रिसर्च में शामिल किया गया। इनमें से कुछ के पेरेंटस बहुत सामंजस्य व धैर्य तथा सहन शीलता से एक दूसरे के प्रति व्यवहार करते थे और कुछ के पेरेंट्स उग्र स्वभाव के थे और उनमें बात-बात पर तू-तू मैं-मैं होती थी और वह एक-दूसरे पर क्रोध में भरकर जमकर चिल्लाते और उग्र शब्दों की भाषा बोलते थे। जिन बच्चों के पेरेंटस शांत स्वभाव वाले थे उन परिवारों के इस उम्र के बच्चे भी खुश मिजाज थे। वह हंसते और किलकारियां मारते हैं और दूसरों के बुलाने पर हंसते और मुस्कारते हैं। वह खुशी में भरकर प्राय: किसी को देख कर बांहें फैलाकर अपनी खुशी और आनंद दिखाते हैं। ऐसे प्रसन्नचित्त बच्चे बहुत प्रिय और आकर्षित लगते हैं। इन बच्चों को स्ट्डी कर मनोवैज्ञानिकों ने पाया कि आगे चलकर यह खुशमिजाज व्यक्तित्व वाले होते हैं और अपनी मुस्कराहट व हंसी से सबको अपना बनाने वाले तथा सहयोग करने वाले व्यक्ति बनते हैं। वहीं अशांत वातावरण में पलने वाले यह 10 या 15 महीने के बच्चे क्रोध की भाषा को सुन कर डरे व सहते रहते हैें। यहां तक कि यदि उनके माता-पिता में से कोई एक भी गुस्सैल होता है तो यह उसके पास जाने में हिचकिचाते हैं और चाहते हैं कि वह उनके पास न जाएं। मनोवैज्ञानिकों ने तो यहां तक पाया कि यदि बच्चे एक बार भी क्रोध की आवाज सुन लें तब वह उस व्यक्ति को मन में रखकर यह सुनिश्चित करते हैं कि कहीं यह दूसरी बार गुस्सा तो नहीं करेगा। हम बच्चों को केपल ऊपरी तौर पर समझते हैं। उनके लिए तरह-तरह के मंहगे खेल खिलौने कर और उन्हें चॉकलेट्स और टॉफिया देकर उनका  एक प्रकार से मन जीतने तथा उन्हें खुश रखने का प्रयास करते हैं। उन्हें लगता है कि इससे बच्चे बहुत प्रसन्नता पाएंगे पर, मनोवैज्ञानिकों ने यह पाया कि बच्चे इन चीजों के बावजूद भावनाओं और संवेदनओं की भाषा की प्रतिक्षा करते हैं। वह अपने साथ होने वाले व्यवहार के साथ-साथ अपने आस-पास के माहौल और वातावरण में खुशी व शांति चाहते हैं। उनका सुख भी एक व्यस्क की भांति इस भावना से जुड़ा होता है कि वह और उनके प्रियजन परस्पर खुशी व आनंद से व्यवहार कर रहे हैं या नहीं?

हमारे यहां तो बहुत पहले से ही हमारे मनीषियों ने स्थूल व सूक्ष्म शरीर को जान व पहचान लिया था। उनके चिंतन का यह निष्कर्ष यह था कि मनुष्य अपने स्थूल शरीर के साथ-साथ सूक्ष्म चेतना साथ लेकर ही जन्म लेता है। स्थूल शरीर को प्रसन्न के लिए इकट्ठी की गई वस्तुएं उसके सूक्ष्म शरीर को भी संतुष्ट करें यह कतई आवश्यक नहीं। पर यदि सूक्ष्म शरीर ने भावनाओं की सुरक्षा प्राप्त कर ली तो स्थूल शरीर अवश्य ही संतुष्ट व प्रसन्न होगा। पेरेंटस को अब यह समझना होगा कि उनके क्रोध व कटू व्यवहार का बच्चे पर क्या प्रभाव पड़ेगा। उनकी कलह बच्चे को न सिर्फ आहत करती है बल्कि चिड़चिड़ा भी बना देती है। महंगी वस्तुएं देने के स्थान पर उसे प्रेम व शांति व सहजता का माहौल दें। क्या आप बच्चे के सुख के लिए ऐसा करना उचित नहीं होगा?

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