26 Apr 2024, 08:17:46 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-ओमप्रकाश मेहता
समसामयिक विषयों पर लिखते हैं।

जिस लोकतंत्र में उसका संविधान महज शपथ और सत्तारूढ़ दल के लिए आत्मरक्षा और पवित्र धार्मिक ग्रंथ भगवत गीता न्यायालयों में सच्ची-झूठी कसम या शपथ का माध्यम मात्र बनकर रह गए हो तथा जहां ‘लोक’ पर ‘तंत्र’ ने मनमानीपूर्ण कब्जा जमा रखा हो, उस देश के लोकतंत्र, आजादी और वहां की शासन-प्रशासन की प्रक्रिया के बारे में क्या कहा जा सकता है? आखिर हमारे दूरदर्शी संविधान निर्माताओं ने इस बात पर गौर क्यों नहीं किया कि देश के आधुनिक भाग्यविधाता अपने निजी और राजनीतिक स्वार्थ के लिए अपने जमीर और जनभावना को किसी दल या व्यक्ति विशेष के पास गिरवी रख देंगे। क्या यह दलबदल का ‘बद’ चलन देश के आम वोटर और उसके भविष्य के रंगीन सपनों के साथ शुद्ध रूप से धोखाधड़ी नहीं है? फिर इन पर जनता के साथ धोखाधड़ी के मामले क्यों नहीं चलाते ?

यद्यपि लोकतंत्र के इस कैंसर का इलाज कांगे्रस की सरकार ने उस समय खोजने का प्रयास दलबदल कानून बनाकर किया था, जब मध्यप्रदेश सहित कई राज्यों में दलबदल करके विधायकों ने चुनी हुई सरकारें गिराई थी, किंतु उस कानून में भी जितनी सख्ती और कठोरता होना थी वह नहीं आ पाई और व्यक्तिश: दलबदल को ही अपराध माना गया, समूह या सामुहिक दलबदल को नहीं। जबकि होना यह चाहिए था कि दलबदल चाहे एक जनप्रतिनिधि करें या एकाधिक, नियम सभी के लिए एक ही होना चाहिए था और उसमें जनता के साथ धोखाधड़ी करने का अपराध भी कायम होना चाहिए था, सिर्फ संबंधित सदन की सदस्यता खत्म करना काफी नहीं होता। क्योंकि देश का आम वोटर अपने स्वयं व क्षेत्र के विकास के जिन सपनों को संजोकर एक जनप्रतिनिधि या प्रत्याक्षी पर विश्वास जताता है और उसे प्रजातंत्र के मंदिरों के द्वार तक पहुंचाता है, वहीं जनप्रतिनिधि जनता के सपनों को रोंधकर निजी स्वार्थ के खातिर दलबदल कर लेता है तो यह खुलेआम धोखाधड़ी नहीं तो और क्या है?

फिर जब देश के अधिकांश प्रदेश इन्हीं दलबदलुओं के कारण राष्ट्रपति शासन का दंश झेल चुके हो, तो फिर हम और हमारी केंद्र सरकार लोकतंत्र के इस ‘कैंसर’ को जड़-मूल से खत्म करने का जतन क्यों नहीं करती? किंतु यहां सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि विपक्ष में रहते हुए देश को बड़े-बडेÞ रंगीन सपने दिखाने वाले किसी भी राजनीतिक दल ने सत्ता में आने के बाद अपनी चाल, चरित्र और चेहरा पूर्ववर्ती सत्तारूढ़ राजनीतिक दल से अलग रखने का प्रयास किया है? सत्ता प्राप्ति के बाद हर राजनीतिक दल की चाल-ढाल एक जैसी क्यों हो जाती है? क्यों वह ‘चक्रवर्ती’ बनने की चाह में हर वह कदम उठाने को तैयार हो जाता है, जिसे न समाज ठीक मानता और न ही देश?

फिर वह जमाना भी गया जब ‘बैलेट’ की जगह ‘बुलेट’ से सत्ता प्राप्त करने की कोशिशें होती थी, अब तो जनता की परेशानियों की दु:खती रगों पर हाथ रख उन्हें उनकी खुशहाली के सपने दिखाकर उनका विश्वास जीतने और वोट प्राप्त करने के जतन होते है? और आज यही सब केंद्र में सत्तारूढ़ केंद्रीय नेतृत्व कर रहा है? राजनीति और सत्ता की इस नई तकनीक से हमारे आधुनिक भाग्यविधाता इस देश के लोकतंत्र को किधर लेजा रहे हैं यह तो ये स्वयं जाने? किंतु एक बात तय है और वह यह कि आज का वोटर भी उतना नासमझ या भोलाभाला नहीं रहा जितना कि आजादी के प्रारंभिक वर्षों में था, अब वोटर काफी जागरूक और दीर्घसोची है, वह सरकार में सत्तारूढ़ हर राजनीतिक दल पर पैनी नजर रखता है और लोहा गरम होने पर जोरदार हथौड़ा मारना जानता है, इसलिए सत्तारूढ़ दलों को भी इस खुशफहमी में नहीं रहना चाहिए कि वे प्रजातंत्र के इस ‘भेड़समूह’ को जैसा चाहेंगे, वैसा ‘हांक’ लेंगे और जब तक चाहेंगे सत्ता सिंहासन पर विराजे रहेंगे? ‘‘यह पब्लिक है बाबू, यह सब जानती है।’’

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