-वीना नागपाल
महिला दिवस के दौरान प्रसिध्द अभिनेत्री से एक साक्षात्कार में पूछा गया कि क्या आपको किसी ऐसी घटना का स्मरण है जिसमें आपको लगा हो कि भेदभाव (महिला व पुरुष) की बात की गई हो। विद्या बालन ने बिना हिचकिचाए जवाब दिया कि हां इस बात पर मेरी किसी से कटु बहस हो गई थी। मैंन उनसे कहा कि मैं ऐसे रोल नहीं करना चाहती जिसमें मेरे करने के लिए कुछ ज्यादा न हो। इस पर सज्जन बोले- आप तो अपने लिए फिर एक सीमित दायरा चुन रही हैं, क्योंकि हमारी फिल्मों में नायिकाओं को अधिक कुछ नहीं करना होता। वैसे ही अभिनेत्री की कोई लंबी अवधि नहीं होती और आप इस तरह की बातें कर और अपनी पसंद बताकर एक अभिनेत्री के रूप में अभिनय की अवधि और भी कम रही हैं। उनकी इस बात को सुनकर विद्या बालन का खून खौल उठा और उन्होंने पलटकर कहा- विश्वास रखिए मेरे साथ ऐसा नहीं होगा और न मैं अपने साथ ऐसा होने दंूगी। विद्या का यह आत्मविश्वास बना हुआ है और उन्होंने नायिका प्रधान फिल्मों में काम कर इस विश्वास को और भी अधिक स्थापित कर दिया है। अन्य अभिनेत्रियों का मत भी अब इसी प्रकार का है। उनका यह साक्षात्कार ‘द वीक पत्रिका में छपा है’।
दरअसल पुरुष चाहे किसी भी क्षेत्र का क्यों न हो वह अपनी पुरुष प्रधान मानसिकता से निकल नहीं पा रहा है। हां! यह सच है कि कभी ऐसा भी समय था जब फिल्मों में नायिकाएं एक शृंगारिक वस्तु के रूप में दिखाई जाती रही हैं। नायक के सामने नायिका की छवि एक शर्मीली, छुई-मुई सी कोमलता की सारी भावनाओं से रची-बसी होती थी। नायक के साथ बाग-बगीचों में पेड़ों के ईर्द-गिर्द चक्कर लगाते हुए व मधुर गीतों से अपने प्रेम को अभिव्यक्त करती थी। इन फिल्मों में दिखाया जाने वाला विलेन नायिका के पीछे हाथ धोकर पड़ा रहता था, जिसे समय-समय पर हीरो पटखनी देता रहता, पर प्राय: फिल्म का क्लाइमेक्स यह होता कि विलेन नायिका को अपने पंजे में ले लेता। बेचारी नायिका कुछ नहीं कर पाती। ऐन मौके पर साहस, शौर्य तथा हिम्मत से भरा नायक आता और अपनी शक्ति व सबलता का प्रदर्शन कर नायिका को छुड़ा लेता। यह पुरुष प्रभुत्व व स्वामित्व और वर्चस्व का वह साक्षात प्रदर्शन था जहां नायिका दोयम हो जाती। यह बहुत गलत प्रदर्शन था पर, पिछले कुछ समय से फिल्मी परिदृश्य ने एक करवट ली है और नायिका प्रधान फिल्मों ने नायक का वर्चस्व कम किया है। नच बलिए क्वीन, एन एच-10, हाईवे, मेरीकॉम, तनु वेड्स मनु और यूं सूची लंबी होती जा रही है। पीकू और बाजीराव-मस्तानी भी महिला चरित्र की साहसिक छवि को प्रदर्शित करती हैं। स्वयं विद्या बालन द्वारा अभिनीत परिणिता, कहानी और तेरी-मेरी कहानी महिला चरित्र का सुदृढ़ता का अद्भुत चित्रण करती हैं। यह फिल्में न केवल निर्मित हुई बल्कि दर्शकों द्वारा पसंद भी की गईं। प्रतिक्षा कीजिए! अभी ऐसी फिल्मों के निर्माण की लंबी सूची आने वाली है।
नायिका प्रधान इन सफल फिल्मों से उस व्यक्ति को जवाब तो मिल गया होगा पर आज भी पुरुष अपनी सोच में स्वयं ही इतना जकड़ा हुआ है कि वह अपने खोल से बाहर ही नहीं आना चाहता। छद्म पौरुष की इस मानसिकता को उसे स्वयं ही बदलना होगा। यह पितृसत्तात्मक समाज में उस बदलाव का संक्रमण काल है जब पुरुष अपने पुरुषत्व के अहं को एक और करके महिलाओं के प्रति सम्मान व आदर रखने के साथ-साथ उनकी उपस्थिति को स्वीकारेगा और उसके प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखेगा।
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