27 Apr 2024, 05:48:36 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

- हर्षवर्धन पांडे
-समसामयिक विषयों पर लिखते हैं।


उत्तराखंड के चश्मे से अगर चीजों को देखा जाए तो यह कहना गलत नहीं होगा कि पंद्रह साल में अलग राज्य का सपना उत्तराखंड से टूटता दिखाई दे रहा है। लंबे जनसंघर्ष के बाद पृथक उत्तरांचल राज्य जब अस्तित्व में आया तो माना जा रहा था कि पहाड़ की उपेक्षित जनता को अपने जायज और लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए सडकों पर उतरने की जरूरत नहीं पड़ेगी लेकिन पंद्रह साल बीतने के बाद भी यह सब कोरी कल्पना साबित हुई है। पहाड़ की जनता के सामने राज्य गठन से पहले जैसी परिस्थितियां थी कमोवेश वैसी परिस्थितियां आज भी खड़ी  हैं लेकिन राज्य में नेताओं  में आपसी खींचतान और कुर्सी पाने की होड़ ऐसी मची हुई है जिसने राज्य के विकास कार्यों को प्रभावित कर दिया है। अब उत्तराखंड की हरीश रावत की सरकार पर भी संकट आ गया  है। अरुणाचल की तरह कांग्रेस के लिए यहां मुश्किलें बढ़ गई हैं। रावत की चार साल पुरानी कांग्रेस सरकार के नौ विधायकों ने बगावती तेवर दिखाकर रावत को अस्थिर करने की तैयारी पूरी कर ली। इन सात विधायकों में पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा और कृषि मंत्री हरक सिंह रावत भी शामिल हैं । बागियों की अगुआई कर रहे वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री डॉ. हरक सिंह रावत ने राज्य मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया।

दिल्ली पहुंचने पर राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने हरीश रावत पर भ्रष्टाचार में लिप्त होने का आरोप लगाते हुए कहा कि उनके नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे देना चाहिए। राजभवन की तरफ से  हरीश रावत को सदन में 28 मार्च तक का समय दिया गया है जिसके चलते इस छोटे से राज्य में हार्स ट्रेडिंग को बढ़ावा मिलने की आशंकाए बढती दिख रही हैं। गौरतलब है कि उत्तराखंड में विधानसभा की कुल 70 सीटें हैं, एक सीट एंग्लो इंडियन नामित हैं और उसे जोड़ कर सीटों की संख्या 71 पहुंच जाती है। कांग्रेस के पास बहुमत से एक सीट ज्यादा 36 सीटें हैं। बीजेपी के पास 28 सीटें हैं तो बीएसपी की झोली में 2 सीटें हैं । अन्य के खाते में 4 सीटें हैं। एक बड़े जनांदोलन से निकला उत्तराखंड बीते पंद्रह साल में कई सियासी घटनाओं का गवाह रहा है। वर्ष 2000 में मानसून सत्र में लोकसभा ने उत्तर प्रदेश पुनर्गठन को मंजूरी दी जिसके बाद 9 नवंबर 2000 को यह अलग राज्य अस्तित्व में आया।  चूंकि अविभाजित अंतरिम सरकार में 30 में से 24 विधायक भाजपा के थे लिहाजा भाजपा की अंतरिम सरकार बनी जहां बाहरी नित्यानंद स्वामी की सी एम के रूप में ताजपोशी हुई स्थाई राजधानी के मसले पर इस सरकार की सबसे भारी भूल की कीमत प्रदेशवासी अभी तक चुका रहे है और आज हालत यह है कि राज्य की स्थाई राजधानी का विवाद जस का तस बना हुआ है।

पूर्व मुख्यमंत्री स्वामी ने स्थायी राजधानी के चयन के लिए जिस वीरेंद्र दीक्षित आयोग का गठन किया था राजनीतिक जमात ने उसका कार्यकाल दर्जनों बार बढ़ाया और आज तक देहरादून का मामला लटका हुआ है।  राज्य में दबाव की परंपरागत रणनीति पर गौर करें तो अंतरिम सरकार के मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी को उन्हीं की पार्टी के बड़े दिग्गजों का का भारी विरोध झेलना पड़ा। अंतत: उन्हें चुनाव से छह माह पूर्व ही मुख्यमंत्री पद से विदा होना पड़ा। भाजपा की खंडूरी सरकार भी अपने जन्म के समय से ही विरोध झेलती रही। पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी ने विरोधी झंडा इस कदर उठाया कि महज ढाई वर्ष में ही खंडूरी सरकार निपट गई। इसका असर यह हुआ कि 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा राज्य में लोकसभा की पांचों सीटें हार गई। पार्टी के अंदरुनी हालात को जानते हुए भी खंडूरी के सिर ही इस हार का ठीकरा फोड़ा गया। हालांकि अधिकतर मुख्यमंत्रियों की असमय विदाई के कई कारण लचर शासन और भ्रष्टाचार के मामले भी कुछ हद तक रहे लेकिन असल में इन सबकी जड़ में सत्ता पाने की महत्वाकांक्षाएं और राजनीतिक समीकरण ही मुख्य रहे हैं।

आज मुख्यमंत्री हरीश रावत को भी इसी समस्या से जूझना पड़ रहा है। राजनीतिक तौर पर देखा जाए तो हरीश रावत ने केंद्रीय मंत्री रहते विजय बहुगुणा के साथ जो किया वही आज उनके साथ भी किया जा रहा है। एक पुख्ता रणनीति के तहत इस समय भाजपा अपनी बिसात में लोकसभा चुनावों से ठीक पहले भाजपा में शामिल किए गए सतपाल महाराज को साधकर हरीश रावत सरकार को शहीद करने की तैयारी में खड़ी है।  व्यक्तिगत स्वार्थ इतने अधिक रहे कि अंधा बांटे रेवड़ी वाली बात उत्तराखंड में  हर सरकार में लागू है। उत्तराखंड का विकास दूर की कौड़ी लगता है।  

यह त्रासदी है कि उत्तराखंड में पार्टी के हर नेता का करीबी अपनों के लिए लालबत्ती न केवल मांगता है बल्कि अपने इलाके की हर विकास योजनाओं में कमीशनबाजी चाहता है, जिसके चलते उत्तराखंड का विकास किसी दिवास्वप्न से कम तो नहीं लगता। मौजूदा मुख्यमंत्री हरीश रावत  भी अपने कार्यकाल में एनडी तिवारी के पग चिन्हों पर चलते हुए न केवल अपनी कुर्सी किसी तरह बचाने की दुआ करते रहे।   जिससे उनकी सरकार और कुर्सी  किसी तरह 2017 तक बची रह जाए शायद यही वजह है वह भी अपने करीबियों को लालबत्ती बांटकर, खनन की खुली लूट से वाहवाही बटोरने में लगे रहे। यही नहीं विज्ञापनों और मीडिया को साधकर वह अपना गुणगान अपने पूर्ववर्ती तिवारी व बहुगुणा की तर्ज पर करने में लगे हैं। सत्ता पर चाहे भाजपा रही हो या कांग्रेस सरकारी खजाने को दोनों ने भारी चपत ही लगाई है। यहां नेताओं ने चुनाव बेशक पहाड़ से लड़ा लेकिन चुनाव जीतने के बाद उन्होंने  भी अपना आशियाना तराई के इलाकों में बना लिया। राज्य में मैदानी इलाकों में विधानसभा की सीटें बढ़ गई। उत्तराखंड की राजनीतिक जमात का पूरा चरित्र ही पहाड़ विरोधी रहा है। यहां के नेता पहाड़ के साथ झूठ और फरेब की राजनीति करते रहे हैं और आज भी यही इतिहास मौजूदा रावत सरकार के कार्यकाल में दोहराया जा रहा है।

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