27 Apr 2024, 08:51:06 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-डॉ. दिलीप अग्निहोत्री
प्रजातांत्रिक देशों में मतभेद और उसकी अभिव्यक्ति का अनुकूल माहौल होता है, लेकिन राष्ट्रहित का तकाजा यह है कि मतभेद का विस्तार मनभेद तक नहीं होना चाहिए। इसका मतलब है कि राष्ट्रीय हित के कतिपय विषय ऐसे होने चाहिए जिन पर दलगत सीमा से ऊपर उठकर राष्ट्रीय सहमति होनी चाहिए। इस सहमति का अवसर के अनुरूप प्रदर्शन भी होना चाहिए, जिससे सीमा पार तक यह संदेश जाए कि हमारा देश राष्ट्रहित से समझौता करने को तैयार नहीं है। ऐसे मसलों पर सवा अरब की आबादी का एक स्वर होगा। देश की एकता-अखंडता, आतंकवाद का विरोध आदि ऐसे मसले हैं, जिन पर देश को एकजुटता दिखानी चाहिए। मतभेद प्रदर्शित करने वाले विषयों की कमी कभी नहीं होती। केवल कुछ विषयों को उनसे अलग रखने की अपेक्षा की जाती है, लेकिन वामपंथियों और कांगे्रस की इस मामले में जुगलबंदी ने कई गंभीर प्रश्न उठाए हैं। देश को उन पर विचार करना होगा।
 

जेएनयू प्रकरण और उसके बाद की गतिविधियों के आधार पर कहा जा सकता है कि देश में वामपंथी वैचारिक रूप से ऐसा वर्ग तैयार कर चुके हैं, जिसे राष्ट्रविरोधी आवाज उठाने में कोई संकोच नहीं होता। फिलहाल संतोष की मात्र इतनी बात है कि इनकी संख्या बहुत कम है। जनसामान्य इनके विचारों से प्रभावित नहीं है, लेकिन वहीं चिंता की बात यह है कि विश्वविद्यालयों में इनके छात्र संगठन सक्रिय हैं। यह पाकिस्तान और कश्मीर की आजादी की मांग उठाने वालों को मंच उपलब्ध कराते हैं। इसका खतरनाक पक्ष यह भी है कि देश की राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस का छात्र संगठन भी परोक्ष-अपरोक्ष रूप से इनके समर्थन में आ जाता है। छात्र संगठनों की यह जुगलबंदी इनके राष्ट्रीय नेतृत्व तक जा पहुंचती हैं। इसी का नतीजा है कि राहुल गांधी और सीताराम येचुरी, डी. राजा आदि एक मंच पर दिखाई देते हैं। इसका असर केसी त्यागी जैसे नेताओं पर भी दिखाई देता है।

उनकी पार्टी जद (यू) जब 17 वर्षों तक राजग में थी, तब केसी त्यागी जैसे नेता भारत विरोधी नारों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं मानते थे, लेकिन जैसे ही कांग्रेस से उनका गठबंधन हुआ, बोली बदल गई। वह भी कश्मीर की आजादी की मांग को अभिव्यक्ति की आजादी मान बैठे। इन नेताओं को जवाब देना चाहिए कि जेएनयू में राष्ट्रविरोधी नारों से अपने को अलग करने में इन्हें चार दिन क्यों लगे, जबकि नारों के वीडियो तत्काल सामने आ चुके थे। दूसरा गंभीर प्रश्न भी इसी से जुड़ा है, क्या कारण था कि राष्ट्र विरोधी नारेबाजी के वीडियो से छेड़खानी का प्रयास किया गया, यह बताने का प्रयास किया गया कि इसके पीछे संघ, भाजपा के सदस्यों का हाथ था, लेकिन जब पुलिस की कार्रवाई से सच्चाई सामने आने लगी तो, इन नेताओं के स्वर बदलने लगे। करीब चार दिन बाद कांग्रेस का अधिकृत बयान आया कि पार्टी नौ फरवरी की घटना से अपने को अलग करती है। इसमें कश्मीर की आजादी के नारे लगे थे, भारत के खिलाफ लगातार जंग का ऐलान हुआ था, संसद पर हमले की योजना बनाने वाले अफजल का गुणगान हुआ था।

वामपंथी नेताओं के साथ राहुल गांधी के जेएनयू पहुंचने के पहले ये सभी राष्ट्र विरोधी नारे देश के सामने आ चुके थे, लेकिन दिल्ली की ही इस घटना से कांग्रेस जद (यू) और वामपंथी कई दिन तक अनजान बने रहे। जेएनयू प्रकरण ने यह साबित किया कि वामपंथी विचारधारा विश्वविद्यालयों में ऐसी युवा पौध तैयार कर चुकी है, जो भारत विरोधी तत्वों को मंच उपलब्ध कराती है। उस कार्यक्रम के वीडियो देश के सामने हैं। इसमें वामपंथी आयोजन का मकसद देखा जा सकता है। इसमें कुछ लोग पाकिस्तानी आतंकी सरगना के बनाए भारत विरोधी नारों पर नाच रहे हैं, कुछ लोग तालियां बजाकर अपना समर्थन व्यक्त कर रहे हैं, कुछ लोग तटस्थ भाव से यह सब देख रहे हैं। सवाल यह है कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर उन तत्वों को मंच क्यों उपलब्ध कराया गया जिनकी सहानुभूति पाकिस्तान और अफजल के प्रति जगजाहिर थी। इनसे भारत के हित में बात करने की उम्मीद ही नहीं थी।

जेएनयू छात्र संघ का अध्यक्ष और उसका वामपंथी छात्र संगठन इस आयोजन की तैयारी पहले से कर रहा था। एक पल को माना जा सकता है कि अध्यक्ष (कन्हैया कुमार) और अन्य आयोजकों को वहां भारत विरोधी नारे लगने का पूर्व अनुमान नहीं था, लेकिन जब नारे लग रहे थे, तब उनके सामने दो ही विकल्प थे, एक यह कि वह उन नारों को शांतिपूर्ण ढंग से रोकने का प्रयास करते, उसका शांतिपूर्ण प्रतिरोध करते। दूसरा विकल्प यह था कि वह उस स्थान से हट जाते तथा पुलिस में शिकायत दर्ज कराते लेकिन छात्र संघ अध्यक्ष सहित सभी आयोजक बड़े उत्साह के साथ उस आयोजन में हिस्सेदारी कर रहे थे। वामपंथी संगठनों को जवाब देना होगा कि वह विश्वविद्यालयों में राष्ट्रविरोधी तत्वों को मंच क्यों उपलब्ध कराते हैं, क्यों वह अफजल, कसाब जैसे आतंकियों का महिमामंडन करने वाले कार्यक्रमों को समर्थन देने के लिए दौड़ पड़ते हैं, क्यों वह बीफ पार्टियों का आयोजन करने वालों में शामिल हो जाते हैं।

भले ही ऐसा आयोजन करने वाले जातिवादी संगठन के सदस्य हों, जबकि वामपंथी विचारधारा तो विश्व को दो जातियों में विभाजित मानती है- अमीर और गरीब। फिर वह जाति और मजहब की राजनीति में खुलकर सामने क्यों आ जाते हैं। हैदराबाद के केंद्रीय विश्वविद्यालय में भी यही हुआ था। बीफ पार्टी का आयोजन करने वालों तथा आतंकियों की बरसी मनाने वालों को वामपंथियों व कांग्रेसी संगठनों ने समर्थन किया था। यदि उस घटना की तह में पहुंचें तो साफ होगा कि दलित छात्र की आत्महत्या के अपरोक्ष गुनाहगार ऐसे ही तत्व थे जो छात्रों को विषैली तालीम दे रहे हैं, जिसके कारण सामाजिक सौहार्द्र की जगह विभाजन की बात होती है। एकता-अखंडता की जगह कश्मीर के अलगाववाद को समर्थन दिया जाता है, अहिंसा की जगह आतंक का महिमामंडन होता है। इस स्थिति के लिए विश्वविद्यालयों के वामपंथी शिक्षक भी बहुत जिम्मेदार हैं। इन पर अंकुश की आवश्यकता है।

  • facebook
  • twitter
  • googleplus
  • linkedin

More News »