26 Apr 2024, 09:07:40 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-जीवन साहू
यह इस देश का दुर्भाग्य है कि देश की आजादी की लड़ाई के लिए जिन लोगों ने कुर्बानी दी, शहीद हुए उनके वंशज आज दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं, लेकिन जिन लोगों ने देश के लिए नाखून भी नहीं कटाए वे लोग सत्ता सुख भोग रहे हैं। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने कहा था कि आजादी मिलने के बाद इस देश में 10 वर्ष तक सैनिक शासन होना चाहिए ताकि लोगों में अनुशासन आए, जाति, धर्म और भाषा के नाम पर लड़ने वालों के लिए इस देश में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। नेताजी का सपना अधूरा रह गया। 69 साल की आजादी के बाद भी इस देश में राष्ट्रवाद की भावना जन्म नहीं ले पाई। सभी राजनीतिक दलों को सत्ता चाहिए, सभी दलों को सत्ता मिल भी गई, लेकिन इन सबने समाज को बांटने का काम किया। देश में 20 वर्ष के बाद पहली बार किसी एक दल को जनता ने समर्थन देकर केंद्र की सत्ता में बिठाया। पूरा विपक्ष पत्तों की तरह ढह गया। उस विपक्ष को मोदी का प्रधानमंत्री बनना हजम नहीं हो रहा है। जिस जनता ने कम्युनिस्टों को घर बिठाया, वे अब अलगाववादियों को भड़ाकाकर देश में आपातकाल के हालात पैदा करना चाहते हैं।
 

दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कम्युनिस्ट समर्थक छात्रों ने पिछले दिनों संसद के हमलावर अफजल गुरु की बरसी मनाकर जो राष्ट्रविरोधी नारे लगाए, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। ये नारे विश्वविद्यालय के साथ-साथ प्रेस क्लब आॅफ इंडिया में भी लगाए गए। इन सबके सरगना कन्हैया कुमार और उमर खालिद थे। पुलिस ने कन्हैया कुमार को तो पकड़ लिया, शेष छात्र अभी भी फरार हैं। अफजल को संसद पर हमला करने का दोषी मानते हुए 9 फरवरी 2013 में और आतंकवादी मकबूल बट को 11 फरवरी 1984 में फांसी दी गई थी, दोनों के समय केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी। आश्चर्य तो तब हुआ जब कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी विश्वविद्यालय परिसर में पहुंच गए, उन्होंने अपने भाषण में कहा कि मोदी सरकार अभिव्यक्ति की आजादी समाप्त करना चाहती है। ऐसा लगा जैसे वे देशद्रोही नारे लगाने वालों के समर्थन में उतर गए हों। जिस गांधी परिवार की इंदिरा गांधी और राजीव गांधी शहीद हुए हों, उस परिवार का बेटा राष्ट्र विरोधी नारे लगाने वालों का साथ दे रहा है, इससे बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात क्या हो सकती है।

राष्ट्र विरोधी घटना में बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार, दिल्ली के अरविंद केजरीवाल, कम्युनिस्ट नेता सीताराम येचुरी और डी. राजा भी छात्रों के समर्थन में खड़े नजर आ रहे हैं। जबकि केन्द्रीय खुफिया एजेंसी ने गृह मंत्रालय को जो रिपोर्ट दी है उसमें स्पष्ट कहा गया है कि इसके पीछे आतंकवादी संगठन लश्करे तैयबा और हाफिज सईद जैसे आतंकवादियों का समर्थन है। उधर, पुलिस ने दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एस.आर. गिलानी को भी गिरफ्तार किया है, छात्र नेता कन्हैया कुमार को छुड़ाने के लिए कांग्रेस कम्युनिस्ट, जदयू जैसे दल लगे हुए हैं। केन्द्रीय खुफिया एजेंसी ने तो यहां तक कहा है कि देश के 18 विश्वविद्यालयों में इस तरह के आयोजन करने की योजना कम्युनिस्टों ने बनाई थी, इसी तरह की एक घटना बेंगलुरु विश्वविद्यालय में हुई थी, जिसमें एक छात्र रोहित वेसूला ने आत्महत्या कर ली थी। उसको भी राजनीतिक रंग दिया गया था।

सवाल यह उठता है कि दादरी की घटना के बाद देश के बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों ने विरोध जताकर अपने पदक लौटाए थे। उनमें से किसी एक ने नेहरू विश्वविद्यालय की राष्ट्र विरोधी घटना पर एक शब्द नहीं कहा। चैनलों पर दलित, अल्पसंख्यकों के साथ अन्याय को लेकर आवाज उठाने वाले वे सभी नेता मौन हैं, मानो वे अप्रत्यक्ष रूप से इन नारेबाजों के पक्ष में हैं। जाति, धर्म  से बड़ा देश होता है, देश ही नहीं रहेगा तो जातिधर्म भी जिंदा नहीं रह सकते। सत्ता के लिए राष्ट्र विरोधियों से हाल मिलाने वाले इतने नीचे गिर जाएंगे, इसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती। खासकर उस पार्टी से जिसने आजादी का आंदोलन लड़ा ,तब भी इस तरह के नारे नहीं लगे। उस समय भी जब अंग्रेजों के खिलाफ युवक गालियां बकते थे, तब गांधीजी आंदोलन से हट जाते थे। उनका कहना था कि चाहे देर हो लेकिन हम नैतिक मूल्यों के आधार पर आजादी लेंगे। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की राष्ट्र विरोधी घटना ने उन लोगों की कलई खोल दी है जो लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देते हैं। आतंकवादियों का साथ देकर पाकिस्तान किस तरह से जल रहा है, यह हमें नहीं भूलना चाहिए। अफजल गुरु, मकबूल बट जैसे आतंकवादियों को शहीदी बताने वाले लोगों को देश की राजनीति में रहने का कोई हक नहीं है।
 

विपक्ष मोदी सरकार और भाजपा का लोकतांत्रिक तरीके से विरोध करें, इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं है। आज जो लोग सत्ता में आए हैं, उन्होंने 1975 में जब इंदिराजी ने आपातकाल लगाया था, तब जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में तबके नेताओं ने लोकतांत्रिक ढंग से विरोध किया और 19 माह जेलों में रहे। कम से कम कांग्रेसी नेताओं को यह तो कहना चाहिए था कि हम राष्ट्र विरोधी नारे लगाने वालों के खिलाफ है। हमारे वीर जवान सीमा पर गोली खा रहे हैं, सियाचीन की बर्फ में दबकर प्राण दे रहे हैं, मुंबई बम कांड और संसद को उड़ाने की कोशिश करने वाले आतंकियों को मार गिराकर शहीद होने वालों पर किसी विपक्ष के नेताओं फूल नहीं चढ़ाए, उनके परिवारों की सुध नहीं ली।  राष्ट्र विरोधी नारों के खिलाफ सेना के पूर्व सैनिकों ने दिल्ली में प्रदर्शन कर गद्दारों को देश से बाहर करों, के नारे लगाए। पूरे देश में अभी भी 10 लाख से अधिक पूर्व सैनिक पूरे देश में है। क्या हम हमारे सैनिकों के बलिदानों को भी भूल रहे हैं।वोट की राजनीति करने वाले नकली नेताओं ने गरीब दलित और अल्पसं यकों को 69 साल में उठने नहीं दिया, उनके नाम पर सत्ता सुख भोगने वालों को अब बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की राष्ट्र विरोधी घटना ने कई नेताओं को बेनकाब कर दिया है।

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