26 Apr 2024, 08:53:40 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-सुशीम पगारे
जबसे अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पाकिस्तान को आठ एफ-16 लड़ाकू विमान देने के प्रस्ताव को हरी झंडी दी है, तब से न केवल भारत सरकार हैरान है वरन विश्वभर के विदेश नीति के जानकार भी हतप्रभ हैं। प्रेक्षक भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अब तक की ‘फास्ट टैंक डिप्लोमेस’ या व्यापक संदर्भ में विदेश नीति को पहला झटका मान रहे हैं। 26 मई 2014 को, जब से नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली है तभी से उन्होंने अपनी कूटनीतिक चालों से पाकिस्तान को जमकर बौखला रखा था। चीन को भी वे अपनी पैंतरेबाजी से ऊंचा-नीचा कर रहे थे। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा को मात्र बराक नाम से संबोधित कर उन्होंने विश्वभर को यह संदेश दिया था कि उनके कितने प्रगाढ़ संबंध हैं। इन सबके बावजूद बराक ओबामा द्वारा पाकिस्तान को एफ-16 लड़ाकू विमान देने की अनुमति देना निश्चित ही पाकिस्तान की भारत पर बड़ी कूटनीतिक जीत के नजरिए से देखा जा सकता है।  
 

पाकिस्तान और अमेरिका के रिश्ते सदैव से सौहार्दपूर्ण रहे हैं। अगर पाकिस्तान आतंकवाद का पनाहगाह और जनन स्थल नहीं बनता तो शायद अमेरिका से उसके रिश्ते उतार की राह पर जाते भी नहीं। दक्षिण एशिया में चीन की रुचि और भारत के सोवियत प्रभाव में रहने से अमेरिका का झुकाव पाकिस्तान की तरफ रहना स्वाभाविक और जग जाहिर था। जब सोवियत रूस ने अफगानिस्तान में अपनी साम्राज्यवादी लिप्सा के चलते पैर पसारे तो अमेरिका ने खुल कर पाकिस्तान को अपना सैनिक अड्डा बना लिया था और रूस को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया था। सोवियत रूस से खंडित होने के बाद भी चीन और भारत को दबाव में रखने के लिए अमेरिका पाकिस्तान को लड़ला बनाए रखा। यदि 9/11 को ओसामा बिन लादेन का अमेरिकी सरजमीं पर आतंकवादी हमला न होता और लादेन को आई.एस.आई. वहा छिपाकर न रखती तो पाकिस्तान दक्षिण एशिया में अमेरिकी आंख का तारा बना रहता। आतंकवाद ने निश्चित ही पाकिस्तान -अमेरिकी संबंधों में गहरी खाई पैदा कर दी।

हमारे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह यदि विदेश नीति में थोडे भी आक्रामक और स्वत: स्फूर्त होते तो पाकिस्तान को 2005 के बाद से ही अमेरिका के पाले से बाहर कर देते। मोदी को आए अभी दो साल ही हुए हैं और उनके विदेश नीति में किए गए कार्य प्रशंसनीय हंै फिर भी पाकिस्तान ने एफ-16 की डील की सहमति अमेरिका से लेकर प्रधानमंत्री मोदी को प्रतीकात्मक झटका तो दे ही दिया है। अब यहां प्रश्न उठता है कि मोदी से इतनी प्रगाढ़ता दिखाने के बावजूद ओबामा ने क्यों कर पाकिस्तान को एफ-16 देने का निर्णय लिया ? इसके कई कारण नजर आते हंै। ओबामा के अमेरिकी राष्ट्रपति पद पर गिने-चुने दिन बचे हैं। अमेरिकी चुनाव में कई बड़ी कंपनियां चंदा देती हैं, अब यदि एफ-16 लड़ाकू विमान बनाने वाली कंपनी लॉकहीड मार्टिन से उनकी डेमोक्रेटिक पार्टी को चंदा चाहिए तो उसे धंधा भी तो देना होगा। फिर भारत ने अमेरिका से कभी एफ-16 लड़ाकू विमान खरीदने में रुचि नहीं दिखाई। हमारी वायुसेना में अधिकांश लडाकू विमान मिग, सुखोई आदि सोवियंत संघ के हैं तो मिराज फ्रांस के। हाल ही में गणतंत्र दिवस के मौके पर जब फ्रांस के राष्ट्रपति ओलां भारत आए तो भारत ने फ्रांस से 11 बिलियन डॉलर के राफंल्स लड़ाकू विमान खरीदने की चर्चा कर ली।
 

ऐसे में अमेरिका को भी मौका मिला कि जब भारत उसका ग्राहक ही नहीं बन रहा तो जो आगे रहकर मांग रहा है उसे तो अपना उत्पाद बेचें। इसके अतिरिक्त पाकिस्तान ने भी मोदी की कूटनीति की काट करने के लिए पर्दे के पीछे कम धमा-चौकड़ी नहीं मचाई। पिछले दो सालों में पाकिस्तान, चीन के जितने निकट आया है उतना पिछले 40 साल में नहीं आया था। अमेरिका को यह नागवार गुजर रहा था। एफ-16 विमान के सौदे को ओबामा से स्वीकृति के लिए पाकिस्तान ने दबाव बनाने हेतु जॉर्डन से 13 एफ-16 विमान सौदे की बात शुरू कर दी थी। आपको बता दें कि विश्व के विभिन्न देशों की वायुसेना में चार हजार एफ-16 लड़ाकू विमान हंै। इसमें से दो हजार अकेले अमेरिका के पास हैं। अत: जॉर्डन से पाकिस्तानी चर्चा से अमेरिका दबाव में था। पाकिस्तान को अमेरिका अस्सी के दशक से एफ-16 लडाकू विमान देते आया है। 2012 में भी अमेरिका ने उसे 14 अपने इस्तेमाल किए हुए एफ-16 विमान दिए थे।
 

अत: ताजा सौदे को लेकर ओबामा पर भारत के दबाव असरकारी होने में संदेह की पर्याप्त गुंजाइश पैदा करता ही है। पाकिस्तान ने अमेरिका के साथ एक और चालाकी कर रखी है। उसके पास अभी जो एफ-16 विमान है उनको सुधरवाने के लिए वह अमेरिका नहीं टर्की भेजता है। अमेरिका चाहता है कि उसी की कंपनियों को काम मिले। अत: एफ-16 विमान पाकिस्तान को देने के पीछे कई कारण रहे हैं।   तो क्या भारत को पाकिस्तान ने एफ-16 सौदे के बहाने तगड़ी कूटनीतिक पटखनी दे दी है? यह प्रतीकात्मक तो है ही। भारत के पास इस सौदे को रद्द कराने के लिए पूरे एक माह का वक्त है। टेक्सास के कांगे्रस सदस्य टेड पो और कैलिफोर्निया के डाना रोहबाकर ने खुलकर ओबामा के फैसले का विरोध किया है। अमेरिका में हर कार्य लॉबिंग से होता है। अत: भारत सरकार को तगड़ी लॉबिंग कर कांगे्रस के सदस्यों को समझाना होगा कि पाकिस्तान विमानों का इस्तेमाल आतंकवाद नहीं भारत के खिलाफ करेगा। इसके लिए भारत के विदेश विभाग को बड़ी रकम भी खर्च करनी होगी। मोदी ओबामा के इस फैसले को रद्द कराने के लिए लाबिंग तो करेंगे ही उन्होंने इस्राइल  को भी साधना चाहिए। यदि ऐेसा होता है तो अमेरिकी कांग्रेस के जरिए यह सौदा रद्द करवाकर मोदी पाकिस्तान को कूटनीतिक पराजय दे ही सकते हैं।

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