26 Apr 2024, 09:48:02 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-सतीश सिंह
सरकारी बैंकों द्वारा चालू वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में एनपीए के मद में ज्यादा प्रावधान करने से इनके शुद्ध मुनाफे में जबर्दस्त गिरावट दर्ज की गई है। कुछ सरकारी बैंक घाटे में आ गए हैं, तो कुछ के मुनाफे में जबर्दस्त गिरावट दर्ज की गई है। सरकारी बैंकों के शेयर में 12 से 15 प्रतिशत तक की गिरावट के बाद इनके शेयरों की बिकवाली जारी है। निवेशकों के बीच हाहाकार मचा हुआ है। चालू वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में भारतीय स्टेट बैंक के शुद्ध मुनाफे में 61 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है।  इधर, सेंट्रल बैंक, बैंक आॅफ इंडिया, इलाहाबाद बैंक, देना बैंक, इंडियन ओवरसीज बैंक, ओरियंटल बैंक आॅफ कॉमर्स, सिंडिकेट बैंक आदि को दिसंबर,15 की तिमाही में शुद्ध घाटे का सामना करना पड़ा है, जबकि बैंक आॅफ बड़ौदा को दिसंबर, 15 तिमाही में 3342.04 करोड़ रुपए का घाटा हुआ, जो देश में किसी भी बैंक का अब तक किसी भी तिमाही में हुआ सबसे बड़ा घाटा है। रिजर्व बैंक के गवर्नर  रघुराम राजन ने बैकों को साफ तौर पर कहा है कि वे मार्च, 2017 तक अपनी बैलेंस शीट की सेहत को दुरुस्त कर लें।
 

राजन के मुताबिक बैंकों को क्रेडिट ग्रोथ की जगह एनपीए कम करने की तरफ ध्यान देना चाहिए। राजन का मानना है कि बैंक, बैलेंस शीट को साफ-सुथरा करने के बाद ही क्रेडिट ग्रोथ बढ़ाने में सक्षम हो सकते हैं, क्योंकि एनपीए पर काबू पाने के बाद बैंक अपनी आर्थिक स्थिति को दृष्टिगत करते हुए निर्णय लेने में समर्थ हो इधर, रिजर्व बैंक के ताजा रुख से छोटे बैंकों को पूंजी एकत्र करने में परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। बहरहाल, घाटे में आने के बाद छोटे बैंकों के लिये बाजार से पूंजी एकत्र करना आसान नहीं होगा। हां, बड़े बैंकों को जरूर पूंजी की दिक्कत नहीं है।  गौरतलब है कि सरकारी बैंक अपने कामकाज में सुधार एवं अपने को अंतरराष्ट्रीय मानकों के समकक्ष खड़ा करने के लिए एक लंबे अरसे से प्रयास कर रहे हैं। बैंकों के कामकाज में पारदर्शिता लाने के लिए व भारतीय बैंकों के कार्यकलाप में बदलाव लाने के इरादे से 1991 में गठित की गई एम नरसिम्हमम समिति के रिपोर्ट के आधार पर एनपीए के विविध मानकों का निर्धारण 31 मार्च, 1993 में किया गया था।
 

एनपीए के मामले में 1990 के पूर्व भारतीय बैंकों का रुख सख्त नहीं था, लेकिन 1995 में एनपीए के मानक को सख्त बनाया गया और यह निर्धारित किया गया कि अगर किसी खाते में 90 दिनों तक ब्याज या किस्त या फिर दोनों तरह की रकम नहीं जमा होती है तो उसका वर्गीकरण एनपीए के रूप में किया जाएगा।  स्पष्ट है आधुनिक सिद्धांत के अस्तित्व में आने के बाद से बैंकों के कामकाज में पारदर्शिता का सूत्रपात हुआ है और विश्व का भारतीय बैंकों पर विश्वास भी बढा है। इस लिहाज से राजन द्वारा एनपीए के मामले में उठाये गये कदम को बैंकिंग प्रणाली में सुधार की दिशा में उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम माना जा सकता बैंक के कार्य को मोटे तौर पर दो भागों में बांटा जा सकता है। पहला, लोगों का पैसा जमा के रूप में स्वीकार करना और दूसरा, उस जमा पैसे को ऋण के रूप में जरूतमंद लोगों के बीच वितरित करना। बहरहाल,आज की तारीख में  कोयला, पावर, सड़क, टेलीकॉम आदि क्षेत्रों में बैंकों के कोपोर्रेट्स कर्ज फंसे हैं। कर्ज माफी के बाद कृषि क्षेत्र में भी एनपीए की स्थिति गंभीर हुई है। आज भी किसान अगले कर्ज माफी का इंतजार कर रहे हैं। 

रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन का मानना है बैंकों के लिये एनपीए कैंसर के समान जरूर है, लेकिन लाइलाज नहीं। बैंकों के लिये एनपीए जरूर बड़ा मर्ज बन गया है, लेकिन अब सरकारी बैंक इसे छुपाने के मूड में नहीं हैं। वे इसका इलाज करने के लिये तैयार हैं। यह एक अच्छा संकेत है। इसलिए, इस पर ज्यादा हाय-तौबा मचाने की जरूरत नहीं है। हां, एनपीए का स्तर 3.00 लाख करोड़ रुपए से अधिक होने के कारण चिंता का होना स्वाभाविक है, क्योंकि इतनी बड़ी राशि आज किसी काम की नहीं है। अगर इस राशि की वसूली की जाती है तो सरकारी बैंकों की लाभप्रदता में इजाफा, लाखों लोगों को रोजगार, नीतिगत दर में कटौती का लाभ कारोबारियों तक पहुंचना, आधारभूत सरंचना का निर्माण, कृषि की बेहतरी, अर्थव्यवस्था को मजबूती, विकास को गति आदि मुमकिन हो सकेगा। पड़ताल से साफ है एनपीए को कम करने का उपाय उसके मर्ज में छुपा है। मर्ज का इलाज करने के लिये बैंक में व्याप्त अंदरूनी एवं दूसरी खामियों का इलाज, बैंक के कार्यकलापों में बेवजह दखलअंदाजी पर रोक, मानव संसाधन में बढ़ोतरी आदि की मदद से बढ़ते एनपीए पर निश्चित रूप से काबू पाया जा सकता है।

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