-राजीव रंजन तिवारी
जम्मू कश्मीर में सियासत का ऊंट किस करवट बैठेगा, इसे लेकर अब भी असमंजस की स्थिति बनी हुई है। महबूबा मुफ़्ती यह मान बैठी है कि सॉफ्ट सेप्रेटिज्म ही उसकी पहचान है। बीजेपी के साथ सरकार बनाने या साथ चलने की बात पीडीपी के लिए आत्मघाती साबित हो सकती है फिर जम्मू और लद्दाख के लोग मेहबूबा मुफ़्ती की हुकूमत पर कैसे यकीन करें। इन्हीं मसलों पर विचारोपरांत पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती ने स्पष्ट कर दिया है कि अगर केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार राज्य के लिए विश्वास बहाली के उपाय करके अनुकूल माहौल नहीं बनाती है तो वह कश्मीर में भाजपा के साथ सरकार नहीं बनाएंगी। महबूबा ने पार्टी नेताओं से कहा कि कुछ समस्याएं हैं जिनका सामना करने के लिए हमें सहयोग व अनुकूल माहौल की जरूरत है। अगर हमें वह मिलता है तो ठीक, वरना हम यूं हीं आगे बढ़ते रहेंगे। अपने भाई तसादक मुफ्ती व वरिष्ठ पीडीपी नेता मुजफ्फर हुसैन बेग की उपस्थिति में उन्होंने संकेत दिये कि वह कोई वित्तीय पैकेज नहीं चाहती लेकिन विश्वास बहाली के उपायों से समस्या के राजनीतिक पहलू पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
यह पैसे का मामला नहीं है। कितना पैसा आया और कितना खर्च हुआ? यह कब और कैसे आया? मुद्दा यह है कि हम अनुकूल माहौल कैसे बने ताकि नई सरकार को आगे बढ़ने के लिए रास्ता मिले व लोगों में सदभावना बढ़े। इस प्रकार महबूबा ने राज्य में भाजपा के साथ सरकार बनाने को लेकर अपने कड़े रुख की ओर इशारा किया। यह राज्य महबूबा के पिता और तत्कालीन मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद आठ जनवरी से राज्यपाल शासन के अधीन है। जम्मू कश्मीर में दस महीने तक रहे मंत्रियों के दिल की धड़कन ऊफान पर है। जानकार बताते हैं कि पीडीपी की मुश्किलें मुफ़्ती मोहम्मद सईद के निधन से नहीं, बल्कि तब शुरू हुई जब दल के सबसे बड़े नेता के जनाजे में भीड़ नहीं जुटी। श्रीनगर के शेर-ए-कश्मीर क्रिकेट स्टेडियम में मुफ़्ती मोहम्मद सईद के जनाजे में चंद लोग ही जुटे थे। इतनी कम भीड़ से मुश्किलें शुरू हुई। फिर क्या था यह सब देख मेहबूबा सहित दल के सभी लोग उलझन में पड़ गए। दरअसल जब वर्ष 2014 में चुनाव हुए तो राज्य की सत्ताधारी पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस जो घाटी में आई बाढ़ के कारण कमजोर स्थिति में थी को पछाड़ने में पीडीपी लग गई जो उस वक्त मजबूत स्थिति में थी और उन्होंने यह नारा बुलंद किया कि अगर भाजपा को रोकना है तो पीडीपी का हाथ थामो।
भाजपा उस दौर में मोदी के चमत्कार से दिल्ली में सत्तासीन हो चुकी थी, जम्मू में भी मोदी मैजिक का असर संभव था। लोगों ने जमकर चुनावों में हिस्सा लिया। 70 फीसदी से ज्यादा वोटिंग हुआ। चुनावी घोषणाओं के साथ पीडीपी सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी मगर जादुई आंकड़े पार नहीं कर सकी। फरवरी 2015 में पत्ते खुलने लगे जब भाजपा व पीडीपी की नजदीकियां बढ़ी। कश्मीर के लोगों के साथ पीडीपी के अधिकतर नेता अचंभे में थे, पर मुफ़्ती के सामने कोई भी जुबान ना खोल सका। मुफ़्ती ने भाजपा को अपनाया और पीडीपी की जमीनी मजबूती में पहली दरार पड़ती दिखी। जिस एजेंडा आॅफ अलायन्स को लेकर मुफ़्ती अपने वोट बैंक में पड़ी दरार को भरना चाहते थे लेकिन वो बढ़ती गई। उनके निधन तक वह दरार इतनी बड़ी हो गई कि दल को उसकी तकलीफ महसूस होने लगी।
यही दरार पीडीपी के लिए सरकार गठन की सबसे बड़ी उलझन है। इस दरार का भार सहने की क्षमता महबूबा मुफ़्ती में नहीं है। जम्मू में अपने पैर जमा चुकी और पहली बार जम्मू कश्मीर राज्य में सत्ता में आई भाजपा न तो सत्ता खोना चाहती है और न ही अपनी जमीन जो 10 महीनों के शासनकाल के दौरान वह कुछ हद तक बचा पाई है। दरअसल, भाजपा और पीडीपी के बीच विधायकों का भी ज्यादा अंतर नहीं है, इसलिए वो सत्ता के लिए दबना नहीं चाहती। जम्मू में चुनावी प्रचार के लिए वो कई ऐसे वादे कर चुकी है जो कश्मीरी लोगों की इच्छा के विरुद्ध है। तमाम गतिरोधों के बीच भाजपा ने संकेत दिया था कि जम्मू-कश्मीर में अगर राज्यपाल ने उसे सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया तो वो पीछे नहीं हटेगी। भाजपा नेताओं का कहना है कि पीडीपी पीछे हटती है तो फिर उनकी पार्टी दूसरे विकल्पों की तलाश करेगी। महबूबा मुफ्ती को यह भी याद है जब नवंबर में श्रीनगर में हुई एक रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक रूप से मुफ्ती मोहम्मद सईद को झिड़कते हुए कहा था कि उन्हें पाकिस्तान के मुद्दे पर सलाह की जरूरत नहीं है। वहीं दूसरी ओर, महबूबा की तरफ से की गई इस देरी ने भाजपा की बेचैनी बढ़ा दी है।