रायपुर। क्रोकोडाइल मैन ही तो हैं महाराज। जानते हैं क्यों, क्योंकि जिस तरह आप घर में बच्चे को आवाज लगाते हो और कैसे वो दौड़ा चला आता है। वैसे ही महाराज की एक आवाज पर सैकड़ों मगरमच्छ गहरे पानी से निकलकर तेजी से तैरते-भागते आते हैं। जितना अद्भुत, उतना ही आश्चर्यजनक। ...और ऐसे एक-दो या सौ नहीं, ढाई सौ से ज्यादा मगरमच्छ हैं यहां।
ये है कोटमीसोनार का क्रोकोडाइल पार्क। जांजगीर जिले के अकलतरा विकासखण्ड में स्थित कोटमीसोनार में देश का दूसरा और प्रदेश का इकलौता ऐसा पार्क है, जहां मगरमच्छ इतनी संख्या में हैं। यहीं पर एक शख्स हैं सीताराम दास, जो महाराज के नाम से ख्यात हैं। इस पार्क को बनने की एक बड़ी वजह में महाराज भी शामिल हैं। जिसके लिए वे अपना एक हाथ तक गंवा चुके हैं।
उन्होंने बताया कि इस क्षेत्र में 22 से ज्यादा तालाब हैं। लगभग सभी में मगरमच्छ हुआ करते थे। मेरे गांव के एक तालाब के एक मगर का मैं विशेष ध्यान रखता था, लेकिन बच्चों की एक गलती से वो मुझसे नाराज हो गया और मेरा एक हाथ खा गया। खैर, जान बच गई। बस इसी के बाद इस पार्क की पहल हुई।
कालू, भुरु और मुर्गे-मछली का लालच खींच लाया किनारे
दबंग दुनिया की टीम रविवार दोपहर जब पार्क पहुंची, तो मुश्किल से एक मगरमच्छ नजर आया। पार्क के कर्मचारियों से बात की, तो उन्होंने महाराज से मदद लेने की सलाह दी। महाराज भी मान गए। तुरंत तालाब के पास जा पहुंचे। फिर शुरू हुआ कालू और भुरू की आवाज लगाना। मुर्गे और मछली का लालच। हम भौचक थे, क्योंकि इस शोर के बाद एक-एक करके दस से ज्यादा मगरमच्छ गहरे पानी से निकलकर किनारे तक आ रहे थे। हालांकि एक आता, तो दूसरा भागता। अन्य लोगों की भीड़ लग गई। भीषण गर्मी के बीच मगरमच्छों का यूं एक आवाज पर आना, चमत्कार ही लग रहा था।
देश में नाम कमा रहा छत्तीसगढ़
कोटमीसोना मगरमच्छ संरक्षण केन्द्र को देश के दूसरे क्रोकोडायल पार्क का दर्जा हासिल है। जबकि यह प्रदेश का पहला क्रोकोडायल पार्क है। पहले नंबर पर मद्रास क्रोकोडायल पार्क है। छत्तीसगढ़ के कोटमीसोनार में मगरमच्छ संरक्षण केन्द्र का विस्तार 200 एकड़ जमीन पर है। जिसमें 85 एकड़ पर जलाशय निर्माण किया गया है। जलाशय में 250 से ज्यादा मगरमच्छों को उनके अनुकूल प्राकृतिक वातावरण में संरक्षित रखा गया है।
बिजली कटी,पानी भी नहीं
पार्क में बीते दो दिनों से बिजली काट दी गई है। यहां 90 हजार का बिल आया है। जिसका भुगतान नहीं किया गया है। वहीं यहां वाटर कूलर तो लगाए गए हैं लेकिन वह भी खराब है। तपती गर्मी में यहां पर्यटकों को काफी दिक्कतें हो रही हैं।
मुझे मरने के बाद उन्हें ही खिला दिया जाए
बात लगभग 2006 की है। गांव के ही तालाब के जिस मगरमच्छ को मैं बड़े लाड़-प्यार से पालता और खाने-वगैरह की व्यवस्था करता था, वह मुझसे नाराज हो गया। गांव के कुछ बच्चों ने उसे पत्थर मारे थे। उसी वक्त मैं उसके पास पहुंच गया। उसने मुझ पर हमला कर दिया। एक हाथ जबड़े में फंसाकर मुझे खींचता हुआ पानी में ले गया। मैं छटपटा रहा था। तभी मेरा एक हाथ उसकी आंख पर लगा और उसने मुंह खोल दिया। मैं भागा। हाथ टूटकर लटक चुका था। खैर, जान तो बच गई। ऊपर वाले का शुक्र मनाया और तुरंत उस वक्त के कलेक्टर सोनमणि बोरा जी के पास गया। अपना हाल दिखाकर पूरी घटना बताई। गांववाले भी आ गए थे। सभी ने अन्य तालाबों में बढ़ते मगरमच्छ और उनकी सुरक्षा की मांग रखी। तभी तय हुआ कि इनके लिए एक पार्क बनाया जाएगा। वनविभाग को साथ लेकर तुरंत काम शुरू हुआ और ये पार्क तैयार हो गया। अब तो एक ही तमन्ना है। जब सांस थमे, तो मेरे शरीर को इन्हीं मगरमच्छों के बीच डाल दिया जाए। क्योंकि जिनके लिए जीवन न्योछावर कर दिया। मरने के बाद भी उनके बीच ही ‘जिंदा’ रहूं।