26 Apr 2024, 19:31:28 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

दबंग दुनिया स्टेट एडिटर

-पंकज मुकाती 
बिहार में जो हुआ वो होना ही था। इसमें कुछ भी नया और चौकाने वाला नहीं है। जिस गठबंधन को लोग बीस दिन देने को राजी नहीं थे, वो बीस महीने चल गया। बड़ी कामयाबी। पर इस सबसे जो सबसे नाकामयाब हुआ, जिसका नाम, रौब, रुतबा, सम्मान और ठसक, ठनक कम हुई वो हैं नीतीश कुमार। अभी भले नीतीश फिर शपथ लेकर विजेता दिख रहे हों पर असल में वो अपनी राजनीति का सबसे बड़ा मौका चूक गए। नीतीश ने देश में एक  विचारवान, गंभीर सत्तास्वार्थी नेता से अलग पहचान बनाई है। ताजा  टूट, समर्थन और शपथ ने उनकी इस अलग नेता की छवि को तोड़ दिया है। अब वे भी एक सामान्य नेता हैं, जो सत्ता के लिए कुछ भी कर सकता है। यही कारण है, जननायक, सुशासन कुमार, पर आज सवाल उठ रहे हैं। राहुल उन्हें धोखेबाज, लालू हत्यारा और मोदी नायक बताने में लगे हैं। यही नीतीश हैं जिनके पीछे कांग्रेस खड़ी हुई, लालू ने इन्हें भाई बताया और मोदी ने नीतीश के डीएनए को ही गड़बड़ कह डाला। आज सब कुछ उलट है। अपने पराए और पराए अपने। नीतीश की राजनीति की सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि उनकी विचारधारा, दोस्ती, दुश्मनी कुछ भी स्थायी नहीं। कभी वे गैरकांग्रेसी तो कभी गैरसंघी, गैरभाजपाई सरकार के पैरोकार बन जाते हैं। बावजूद इसके वो कभी कांग्रेस के साथ सरकार बनाते हैं तो कभी बीजेपी के साथ। इसे क्या कहेंगे। यथार्थवादी, समाजवादी, अवसरवादी। कभी लालू दोस्त, मोदी दुश्मन, कभी इसके एक दम उलट। भारतीय राजनीति का यही मिजाज है। नीतीश ने भी जो सब करते वही किया। जब कोई नेता ऐसा करता है तो इसका साफ मतलब है अब वो सत्ता के अधीन एक कठपुतली है, नायक तो वो हो ही नहीं सकता। 
 
दरअसल नीतीश के करीबी जानते हैं कि वे प्रशासक अच्छे हैं, पर नेता कमजोर। नीतीश बेहद आराम, सुविधा, सत्ता  की राजनीति चुनते हैं। वे दरअसल नोकरशाह सरीखे हैं, जहां अवसर हो उसे चुन लो। 2014 के आम चुनाव में  हार के बाद उन्होंने इस्तीफा दिया, जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया। खुद ऐलान किया कि वे अब संगठन को मजबूत करेंगे। पूरे प्रदेश और देश का दौरा करेंगे। भाजपा, संघ और सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ लड़ेंगे। लम्बा-चौड़ा प्लान बना। पर हुआ कुछ नहीं। वे दो-चार सभा से ज्यादा कुछ कर नहीं पाए। आराम की सियासत के लिए फिर मुख्यमंत्री बन गए। अपनी इसी आरामतलबी के लिए बार-बार नैतिकता, सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार का आवरण ओढ़ लेते हैं। उनके राजनीतिक वॉर्डरोब में सभी विचारधाराओं, रंगों के रेडीमेड आवरण टंगे हुए हैं। वे अपनी सुविधा के हिसाब से उसे ओढ़ लेते हैं। अभी उन्होंने भगवा ओढ़ लिया है,पता नहीं कल क्या ओढ़ लेंगे। आखिर इतने रंग बदलने के बाद भी नीतीश का रंग क्यों नहीं उतरता। इसकी साफ वजह है, वे जिसके भी साथ होते हैं, उसकी खूब प्रशंसा करते हैं, जब उसके विरोधी हो जाते है तो कोसने में भी बेजोड़ हैं। चुनाव के वक्त उन्होंने ही कहा था-भाजपा के साथ जाने के बजाय मिटटी में मिल जाऊंगा। भाजपा का जिस तरह का देश में विपक्ष खत्म करने का दौर है निश्चित ही नीतीश की राजनीति अब मिट्टी ही होती दिख रही है। भाजपा उन्हें अब उभरने देगी, ऐसा कोई नासमझ ही कह सकता है।
 
खैर, नीतीश ने मोदी की आंधी को रोककर बिहार में सरकार बनाई थी। भले वो सजायाफ्ता लालू के सहारे रही हो। उस सरकार के साथ देश ने नीतीश को एक उम्मीद वाले नेता के तौर पर देखा। खत्म होते विपक्ष और रीढ़विहीन नेताओं की मंडली में वे चमकते सितारे से रहे। बेहतर होता नीतीश फिर से मुख्यमंत्री बनने के बजाय, सत्ता ही छोड़ देते। इससे निश्चित उनका कद बढ़ता। देश को इस  वक्त एक मजबूत विपक्षी नेता की जरुरत है। यदि वे सत्ता छोड़ देते तो ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, अरविंद केजरीवाल, उद्धव ठाकरे सहित तमाम विपक्षी नेता उन्हें अपना नेता मान लेते। लालू के साथ होने के कारण उनकी स्वीकार्यता कम  थी, पर लालू का साथ छोड़कर भाजपा के साथ जाने से उनका दायरा सिर्फ भाजपा तक सीमित रह गया। अब वे एक भाजपा या कहिए मोदी के अधीन हैं। अब नीतीश के काम, नाम सब मोदी की दें  होंगे। भाजपा के साथ इस तरह घुल जाएंगे-जैसे पानी में चीनी। बेहतर होता नीतीश अपने गुरु संपूर्ण क्रांति के जनक जयप्रकाश नारायण का रास्ता अपनाते। इस देश को इस वक्त फिर एक जेपी की जरूरत है। नीतीश वो जरूरत पूरी कर सकते थे। नीतीश ने खुद को अब मुख्यमंत्री तक सीमित कर लिया, वे देश के नेता बन सकते थे। नीतीश ने इतिहास में दर्ज होने का एक बड़ा अवसर खो दिया। चलते-चलते बशीर बद्र की दो पंक्तियां-
उसी को हक है, जीने का इस जमाने में
जो इधर का दिखता रहे और उधर का हो जाए।
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