रफी मोहम्मद शेख इंदौर। एमफिल, पीएचडी सहित अन्य रिसर्च में जरूरी जर्नल्स की लिस्ट में अब बदलाव होगा। यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन द्वारा 10 जनवरी को जारी की गई लिस्ट में 35 हजार से ज्यादा जर्नल्स के नाम होने के बावजूद हिन्दी सहित आर्ट्स फैकल्टी और भारत के स्थानीय जर्नल्स का नाम नहीं होने का देशभर में विरोध हो रहा है। यूजीसी की लिस्ट के कारण लाखों रिसर्चर का भविष्य अधर में पड़ गया है।
यूजीसी ने जर्नल्स की लिस्ट जारी करने के 20 दिन बाद ही फिर से नया पत्र जारी किया है। इसमें यूनिवर्सिटीज के कुलपतियों को लिखा गया है कि वो अपने क्षेत्राधिकार में आने वाले जर्नल्स की लिस्ट यूजीसी को भेजें। विषयवार भेजे जाने वाले इन जर्नल्स को संबंधित विषय के डीन और बोर्ड द्वारा जांच-परखने के बाद फारवर्ड करने को कहा है। यानी किसी भी जर्नल को जब तक यूनिवर्सिटी अपनी तरफ से मान्य नहीं करेगी, उसे यूजीसी अपनी लिस्ट में शामिल नहीं करेगा। इसके लिए 15 दिन का समय दिया है।
नए-पुराने दोनों को राहत
यूजीसी द्वारा उठाए गए इस कदम से उन रिसर्चर को राहत मिलने की उम्मीद जागी है, जिन्हें अपने रिसर्च पेपर किसी जर्नल में छपवाना है। ऐसे रिसर्चर्स के लिए भी अब राहत हो सकती है, जिन्होंने अपने पेपर ऐसे जर्नल्स में छपवाए हैं, जो इस लिस्ट में शामिल नहीं है। उनके यह पेपर अब अमान्य हो गए थे। अब जरूरी है कि यह नई लिस्ट में शामिल हो। यूजीसी के नए नियमों के अनुसार इस लिस्ट में शामिल जर्नल्स को ही अधिकृत रूप से मान्य किया जाएगा। साथ ही नौकरी व प्रमोशन में ही इस लिस्ट में शामिल के ही नंबर गिने जाएंगे।
हिन्दी भाषियों ने उठाई आवाज
वर्तमान लिस्ट में सबसे ज्यादा समस्या आर्ट्स फैकल्टी के विषयों की थी। इसमें हिन्दी सहित स्थानीय भाषाओं और मानविकी विषयों के विद्यार्थियों के लिए स्थानीय जर्नल्स न के बराबर थे। हिन्दीभाषियों ने इसके खिलाफ बड़ी आवाज उठाई, जबकि रिसर्च के लिए हिन्दी का पेपर नहीं होना कोई शर्त नहीं है। न केवल रिसर्चर बल्कि प्रोफेसर्स और छात्र संगठन भी इस लिस्ट के जारी होने के बाद से ही यूजीसी के कार्यालय और अन्य स्रोतों से लगातार विरोध कर रहे थे। इस दबाव के बाद यूजीसी को फिर से लिंक खोलने के लिए मजबूर होना पड़ा है।
अधिकांश आॅनलाइन मोड में
वर्तमान लिस्ट में अधिकांश जर्नल्स आॅनलाइन मोड के है। इसमें भी बड़ी संख्या में विदेशी जर्नल है। इसमें छपने के लिए रिसर्चर को न केवल उच्च स्तर की तैयारी करना होती है, बल्कि उसके साथ ही मोटी रकम भी खर्च करना होगी। यह इसमें छापने के लिए डॉलर में फीस वसूलते हैं। इस लिस्ट में एक बड़ी खामी एक ही संस्था के अलग-अलग रिसर्च जर्नल्स और 80 प्रतिशत तक साइंस बेस्ड को मान्य कर देने की थी। हालांकि कई भारतीय जर्नल्स ने पहले बार यूजीसी द्वारा मंगवाई गई जानकारी को नजरअंदाज कर दिया था। इससे ही यह स्थिति पैदा हुई है। शहर से भी गिने-चुने जर्नल ही निकलते हैं।