रफी मोहम्मद शेख इंदौर। प्रदेश के गवर्नमेंट कॉलेजों में नौकरी करने वाले प्रोफेसर्स के ट्रांसफर का नियम तो तीन साल का है, लेकिन कई प्रोफेसर सालों से कॉलेजों में जमे हुए हैं। इनका ट्रांसफर नहीं होने के पीछे कारण नेशनल केडेट कोर (एनसीसी) या राष्ट्रीय सेवा योजना (एनएसएस) का प्रभारी होना है। कुछ संघ के नेता होने के नाते ट्रांसफर नीति से बाहर हो जाते हैं। सालों से कभी इनका ट्रांसफर हुआ भी है, तो एनएससी या एनएसएस की आड़ में या तो कॉलेज ने ही रिलीव नहीं किया या फिर ट्रांसफर कैंसल हो गया है। पढ़ाने से लेकर अन्य फायदे उठा रहे ऐसे प्रोफसर्स पर उच्च शिक्षा विभाग की टेड़ी नजर है।
प्रोफेसर्स को नियमानुसार तो विषय और विद्यार्थियों की संख्या के आधार पर एक से दूसरे कॉलेज में ट्रांसफर किया जाता है। नियम के बाद बीमारी या रिटायरमेंट करीब होने के अतिरिक्त किसी अन्य कारण से इन्हें अधिकतम पांच साल के बाद दूसरे स्थान पर जाना होता है लेकिन कुछ प्रोफेसर्स संघ के नाम पर 29-29 साल से एक ही कॉलेज में जमे हैं।
नहीं हुई कार्रवाई
ट्रांसफर करने वाला उच्च शिक्षा विभाग खुद इनके आगे सरेंडर है। कभी गलती से ट्रांसफर हुआ भी तो या तो कॉलेज से इन्होंने खुद एनसीसी या एनएसएस का कोई अन्य प्रभारी नहीं होने की दलील देकर इनका ट्रांसफर रद्द करवा दिया है, तो कभी कोर्ट में इसी आधार पर उन्हें स्टे मिल गया है। होलकर साइंस कॉलेज से लेकर जीएसीसी और जीडीसी से लेकर महू कॉलेज तक ऐसे कई प्रोफेसर सालों से टिके हैं।
पढ़ाई से छूट
इससे शहरों के नामी कॉलेजों में रहकर इन्हें पढ़ाई करने के नाम पर छूट मिलती है। साथ ही भत्ते अलग। वहीं समय-समय पर कैंप के नाम पर लंबी छुट्टियां अलग से मिलती हैं। इनकी सेटिंग के आगे कोई दूसरा भी यह प्रभार नहीं ले पाता है। कभी ट्रांसफर होता भी है तो शहर के ही किसी अन्य कॉलेज में। जबकि इनकी प्रतिभा का फायदा गांवों के कॉलेजों को भी मिलना चाहिए।
नेताओं को भी फायदा
इनके अतिरिक्त संभाग, जिला और जिला संघ में पदाधिकारी होने पर भी ट्रांसफर नहीं होता है। कई प्रोफेसर्स तो सालों से एक संघ से निकलने के बाद दूसरे संंघ में नए पद पर अपना नाम जमा लेते हैं और इसमें होने की दलील देकर अपना ट्रांसफर निरस्त करवा लेते हैं। शासन इतने सालों के बाद भी एनसीसी, एनएसएस और नेताओं के संबंध में कोई स्पष्ट नीति ही नहीं बना पाया है। अब इसकी तैयारी की जा रही है।