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भेदभाव बढ़ा रहे हैं पर्सनल कानून

By Dabangdunia News Service | Publish Date: Jan 25 2017 10:48AM | Updated Date: Jan 25 2017 10:48AM
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-सुरेश हिंदुस्थानी
लेखक समसामयिक विषयों पर लिखते हैं।


भारत में संप्रदाय के लिए बने निजी कानूनों को लेकर हमेशा बहस होती रही है। इस बहस में हमारे देश के राजनीतिक दल भी शामिल हो जाते हैं। कहा जाता है कि भारत एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है, लेकिन यह धर्मनिरपेक्षता कहीं भी दिखाई नहीं देती। सरकार ने कुछ किया तो दूसरा दल उसका विरोध करने लगता है। फिर चाहे वह उसकी नीतियों में शामिल हो या न हो। इसमें एक बात का अध्ययन करना जरुरी है कि धर्म निरपेक्षता कहीं न कहीं समाज में भेद को बढ़ाने का कार्य करती हुई दिखाई देती है। पहली बात तो राजनीतिक दलों को यह समझना चाहिए कि समान नागरिक संहिता न तो किसी के विरोध में है और न ही किसी एक समुदाय के लिए है। समान नागरिक संहिता देश के हर नागरिक को समानता का अधिकार देती है, जबकि अभी जो दिखाई देता है, उसमें कहीं न कहीं असमानता का दर्शन परिलक्षित होता  है।

वास्तव में हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा को ही बदलकर देखा जाने लगा है। कोई हिंदू अपने धर्म को लेकर काम करता है तो उसे सांप्रदायिक कहकर उलाहित किया जाता है, जबकि देश के अन्य संप्रदायों के नागरिक खुलकर अपने धर्म के सिद्धांतों के अनुसार आचरण करें, तो उसे धर्म निरपेक्षता का आवरण प्रचारित किया जाता है। भारत में लंबे समय से समान नागरिक कानून को लेकर बहस चली आ रही है। यह मांग उन लोगों द्वारा उठाई जा रही है, जो किसी न किसी कारण सरकार की योजना से वंचित रह जाते हैं। वास्तव में देखा जाए तो अल्पसंख्यकों के नाम पर दी जाने वाली सरकारी सुविधाएं ही उनकी प्रगति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है।

देश में जिस प्रकार की राजनीति की जा रही है, उसके अंतर्गत यह संभव ही नहीं लगता कि देश में समान नागरिक संहिता लागू की जा सके। देश के राजनीतिक दलों को केवल अपनी सत्ता प्राप्त करने के लिए ही इस प्रकार की राजनीति की आवश्यकता होती है। उन्हें देश की किसी प्रकार की चिंता नहीं होती। हम जानते हैं कि जो संवैधानिक कानून भारत में अल्पसंख्यकों को दिए जा रहे हैं, आजादी के सत्तर सालों बाद भी उनकी आवश्यकता होना, वास्तव में सरकारों की कमी को ही उजागर करता है। सरकारों ने मुस्लिम समुदाय को राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल करने की कई योजनाएं चलाईं हैं, लेकिन उन योजनाओं का प्रभाव सत्तर सालों में भी दिखाई नहीं दे रहा। इससे सवाल यह आता है कि जब किसी समाज को इतनी सुविधाएं देने के बाद भी स्थिति में कोई सुधार नहीं आया, तब उन योजनाओं की समीक्षा किया जाना अत्यंत आवश्यक है।

भारत में मुस्लिम पर्सनल कानून को लेकर जहां मुस्लिम समाज के पैरोकार समाज में भ्रम की स्थिति पैदा कर समाज को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने से वंचित कर रहे हैं, वहीं देश के कुछ राजनीतिक दल भी आग में घी डालने जैसा कृत्य करते हुए दिखाई देते हैं। वास्तव में यह कदम कहीं न कहीं देश में वैमनस्यता को बढ़ावा देने का काम ही कर रहे हैं। जहां तक सांप्रदायिक सद्भाव की बात है तो सभी धर्म और संप्रदाय के लोगों को एक दूसरे के रीति रिवाजों को समान भाव से सम्मान देना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता तो सामाजिक समरसता के तमाम प्रयास महज खोखले ही साबित होंगे। जहां तक राजनीतिक दलों की बात है तो इस मामले में कांग्रेस से लेकर जनता दल (यू), सपा और दूसरे राजनीतिक दलों ने भी इस मसले पर लॉ कमीशन की पहल पर सवाल खड़े करने शुरू कर दिए हैं। यानी बाकी मुद्दों की तरह इस पर राजनीतिक रोटियां सेंकने का सिलसिला शुरू हो गया है। भाजपा दरअसल, शुरू से ही इस पक्ष में रही है कि एक देश में एक ही कानून लागू होना चाहिए। किसी को भी पर्सनल लॉ के तहत काम करने की छूट नहीं दी जानी चाहिए। यह मसला वास्तव में केंद्र की मौजूदा सरकार ने अपनी तरफ से शुरू नहीं किया है। यह मांग तो पिछली सरकारों के समय भी उठती रही है, इसलिए वर्तमान केंद्र सरकार को दोषी ठहराना किसी भी दृष्टि से ठीक नहीं है।

हम यह जानते हैं कि मुस्लिम समाज के लिए बनाए गए तमाम कानूनों को लेकर उनके समाज की तरफ से विरोध की आवाजें उठने लगी हैं, यहां तक कि मुस्लिम समाज की महिलाओं द्वारा इसके विरोध में प्रदर्शन भी हो चुके हैं, लेकिन मुस्लिम समाज के कुछ लोगों द्वारा उनकी आवाज को अनसुना किया जा रहा है। वास्तव में जो उनके हित की बात है, उसे सहज ही स्वीकार कर लेना चाहिए। हम यह भी जानते हैं कि देश के पांच अलग-अलग हिस्सों की पांच मुस्लिम महिलाओं ने समानता के अवसर और हकों को लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। वैसे भी इस पर सवाल खड़े होते रहे हैं कि मुस्लिम समुदाय के लोग महिलाओं को समानता से वंचित क्यों रखे हुए हैं। तीन तलाक ऐसा ही मुद्दा है। केवल पुरुष को ही महिला को तलाक देने का एकाधिकार है।

शाहबानो केस से इस पर सवाल उठने शुरू हुए थे, जब शीर्ष अदालत ने उसके पूर्व पति को गुजारा भत्ता देने के आदेश दिए थे। इसका भी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड व बाकी संगठनों ने तीखा प्रतिवाद किया था। घबराकर तब की राजीव गांधी सरकार ने संसद से कानून पारित कर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को बेअसर कर दिया था। मौजूदा सरकार पूरे देश में हर नागरिक को समान अधिकार देने के पक्ष में है। वह पुरुष हो या महिला। हिंदू हो या मुसलमान या किसी दूसरे मजहब को मानने वाले नागरिक। समान अधिकारों की पैरवी करने और तीन तलाक जैसी प्रथाओं का विरोध करने वाले बहुत से कानूनविद और चिंतक मानते हैं कि मौजूदा दौर में शरीयत के हिसाब से जबरन फैसलों को महिलाओं पर नहीं थोपा जा सकता। हमें इस बात की भी समीक्षा करनी होगी कि मुस्लिम समाज में चल रही तीन तलाक की प्रथा किस हद तक सही है, क्योंकि आज विश्व के लगभग 22 से ज्यादा मुस्लिम देश इस कानून को पूरी तरह से समाप्त कर चुके हैं। जिनमें पाकिस्तान और बांग्लादेश भी शामिल हैं। ऐसे में लोकतंत्र और पंथनिरपेक्ष देश भारत में समान नागरिक कानून को लागू करने के प्रयासों पर आपत्ति का आखिर क्या औचित्य है? जब मुस्लिम देश इस कानून को समाप्त कर सकते हैं, तब जो देश मुस्लिम देश नहीं है, उसमें इस कानून को समाप्त करने में सवाल नहीं उठना चाहिए, क्योंकि मुस्लिम देश में केवल मुस्लिम कानून ही चलते हैं, जबकि भारत में ऐसा नहीं है।

आज देश में जिस प्रकार का दृश्य दिखाई दे रहा है, कमोबेश वह देश विभाजन के पूर्व के हालात को ही दिखा रहा है। विभाजन के समय जो मुस्लिम भारत में रुक गए, उन्होंने उस समय एक ही बात कही थी कि हमें हिंदुस्तान से प्यार है, और हम हिंदुओं के साथ रहेंगे, लेकिन जैसे जैसे समय निकला वैसे ही हिंदुस्तान का मुस्लिम हिंदुओं से दूर होता गया, यहां तक भारत के मुख्य त्योहारों से भी उनकी सहभागिता दूर होती चली गई। इस दूरी को समाप्त करने के लिए हर व्यक्ति को खुले मन से प्रयास करना चाहिए। तभी देश में सामाजिक समरसता की स्थापना संभव हो सकेगी।

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