मनीष पाराशर [सब एडिटर] । दरअसल, इस धरती पर सबसे अधिक सुखी देश और समाज वह है, जहां परपीड़ा को समझने की, दूसरे का दुख जानने और उसके प्रति हार्दिक सम्मान की भावना बलवती हो। कदाचित् भगवान श्री राम का संपूर्ण जीवन इसी आभा से मंडित है, इसीलिए सम्पूर्ण मानव समाज सदैव रामराज की कल्पना करता आया है। श्रीराम भारतीय संस्कृति की चेतना के प्राण तत्व हैं। संपूर्ण भारतीय संस्कृति में राम नाम की महत्ता की भावना है। वे साधन नहीं साध्य हैं। श्रीराम को धर्म, जाति, देश और काल में सीमित नहीं किया जा सकता।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है- राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाए, सहज संभाव्य है।
राम नायक इसलिए नहीं हैं, क्योंकि उनका जीवन उत्तम है, बल्कि इसलिए हैं क्योंकि वह असाधारण जीवन जीते हैं, इसीलिए उन्हें मर्यादा पुरुष कहा जाता है। यदि रामराज्य को एक आदर्श के रूप में रखा जाता है, तो इसलिए क्योंकि वह एक न्यायपूर्ण राज्य का प्रतीक है, तानाशाही का नहीं। आज हम भारत को वही बनाना चाहते हैं और इसीलिए रामायण आज भी लगातार प्रासंगिक बना हुआ है।
श्रीराम ने समूची वसुधा को सत्य के मार्ग का अनुसरण करना सिखाया है। जीवन के प्राण तत्व राम हैं। भारतीय लोक जीवन में राम का महत्व प्रारंभ से ही रहा है। कहा भी गया है कि कण-कण में राम हैं। रोम-रोम में राम हैं। श्रीराम भारतीय संस्कृति के वटवृक्ष हैं, जिनकी पावन छाया में मानव युग-युग तक जीवन की प्रेरणा और उपदेश लेता रहेगा। जब तक श्रीराम जन-जन के हृदय में जीवित हैं, तब तक भारतीय संस्कृति के मूल तत्व अजर-अमर रहेंगे। श्रीराम भारत राष्ट्र की शक्ति हैं। वे राष्ट्रीय ऊर्जा के स्रोत हैं। वे राष्ट्र के शरीर हैं और मन भी। ईश्वरीय सत्ता श्रीराम का स्वरूप धारण कर भारत भूमि पर पुन: उतरी है। वे सम्पूर्ण मानवीय चेतना और संवेदना के पुंज हैं। श्रीराम ने मनुष्य को मनुष्य का आचरण बताया। उत्कर्ष और उत्सर्ग की कला सिखाई। श्रीराम का जीवन आदि, मध्य और अन्त की कथा नहीं, वह सनातन हैं, निरन्तर हैं, नित्य हैं, नूतन हैं। सार्वकालिक और सार्वभौमिक हैं।
श्रीराम की महिमा को आत्मसात कर संविधान समिति ने भारतीय संविधान के प्रथम पृष्ठ पर राम दरबार का प्रकाशन किया। वे जानते थे कि संविधान की संहिताएं तो मात्र इबारत भर हैं, इनका पालन राम जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम के प्रेरक अनुशासन से ही संभव है। श्रीराम भारतीय जन-जीवन में धर्म भावना के प्रतीक हैं, श्रीराम धर्म के साक्षात् स्वरूप हैं, धर्म के किसी अंग को देखना है, तो राम का जीवन देखें। धर्म की असली पहचान इसी से होगी। श्रीराम के साथ रहना, चलना किसी दिव्य जीवन प्रवाह के साथ गतिमान होना है। जो नित्य है, निरन्तर है, जिसमें हर क्षण नए जल कणों का सम्मिलन होता है, जिसका गन्तव्य असीम महासागर है, सीमाबद्धता जिसे अमान्य है।
श्रीराम का मात्र नाम ही जीवन में उत्साह संचारित करता है। प्रकृति में नित्य नई लहर, नई ऊर्जा के स्रोत हैं प्रभु श्रीराम। इस भारत-भूमि की पहचान का मूल तत्व राम ही हैं। जो इन तथ्यों को नकारने का प्रयास करते हैं, वे भीरू हैं, लोभी हैं। सत्ता के सौदागर हैं। लोकजीवन की मान्यताओं, राष्ट्रीय परम्पराओं को वे अनदेखा करना चाहते हैं। सहस्रो वर्ष पूर्व, जब विश्व के अधिकांश हिस्सों में शासक सिर्फ विजेता थे, जो प्राय: बर्बर थे, उस समय राम ने मानवता, त्याग और न्याय की अनुकरणीय भावना का प्रदर्शन किया। श्रीराम पूजनीय केवल इसलिए कि वह बाह्य जगत के विजेता हैं, वरन् वह अंतस और मनोजगत के विजेता हैं। विपरीत परिस्थितियों में वे डगमगाते नहीं। रावण पर जय के पश्चात वे नम्र रहते हैं, शत्रु के शव के पास आते हैं और उन्हें जो कार्य करना पड़ा, उसके लिए पश्चाताप करते हैं। राजनीति और नैतिकता का इससे बड़ा सबक कहां मिलेगा। विकट चुनौतियों के बीच राम संतुलन नहीं खोते, जिह्वा में कड़वाहट या हृदय में प्रतिशोध धारण नहीं करते। छल-कपट या राजनीति से दूर अपनी शक्ति के सदुपयोग को लेकर बहुत सतर्क रहते हैं।
समभाव रखने वाले राम समग्रता और आत्म-त्याग के जीवंत उदाहरण हैं। प्रजा के लिए खुशी त्यागने के लिए तत्पर हैं। सबसे बढ़कर, मुक्ति को महत्व देने वाली संस्कृति में वह नकारात्मकता, स्वार्थ और अधमता से ऊपर उठकर स्वतंत्रता के प्रतीक हैं। पग-पग पर अपने कृत्यों से एकता, समरसता, अभेदता का संदेश देते हैं। केवट के पैर धुलाना, शबरी के जूठे बेर खाना अनादिकाल तक सामयिक रहेगा। भारत की समृद्ध संस्कृति में श्रीराम से वृहद सामाजिक समरसता का कोई प्रतीक नहीं। वर्तमान नैतिक पतन और वैचारिक कलुषता के युग में श्रीराम के आदर्श भारत ही नहीं संपूर्ण धरा पर बदलाव की नवचेतना का धारा प्रवाहित कर सकते हैं। एक चेतना जो कि उत्तरोत्तर विस्तृत रूपाकार धारण करे कि समूची दुनिया में अनूठा स्वर मुखरित हो उठे।